महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
21.अग्र-पूजा
अपने इस कार्य से तुमने यहाँ उपस्थित महापुरुषों एवं महाराजाओं का भारी अपमान किया है। क्या हम सबका इस प्रकार अनादर करने के लिए ही तुमने यह सब आयोजन किया है?" युधिष्ठिर को यों आड़े हाथों लेने के बाद शिशुपाल सभा में उपस्थित राजाओं की ओर देखकर बोला- “उपस्थित राजागण! हम युधिष्ठिर को राजाधिराज मानने को तो तैयार हुए हैं; पर इसका यह मतलब नहीं कि हम उनकी कृपादृष्टि के अभिलाषी हैं। यह बात भी नहीं कि हम उनकी शक्ति से डरकर यहाँ इकट्टे हुए हैं। युधिष्ठिर ने घोषणा की थी कि वह न्याय की दृष्टि से राज्य करेंगे। हमने इस बात पर विश्वास किया और उन्हें धर्मात्मा समझकर गौरवान्वित किया; परन्तु अब, जब उन्होंने हमारे देखते-ही-देखते हमारा अपमान किया है तो वह धर्मात्मा की उपाधि के योग्य कैसे रहे? जिस दुरात्मा ने कुचक्र रचकर वीर जरासंध को मरवा डाला उसी पापी की युधिष्ठिर ने अग्र-पूजा की। इसके बाद उसे हम धर्मात्मा कैसे कह सकते हैं? उनमें हमारा विश्वास नहीं रहा।” इसके बाद शिशुपाल श्रीकृष्ण की तरफ देखकर बोला- “कृष्ण, अगर पांडव स्वार्थ-प्रेरित होकर नियम के विरुद्ध तुम्हारी अग्र-पूजा करने को प्रस्तुत हुए तो तुम्हारी बुद्धि पर क्या पत्थर पड़ गये थे, जो तुमने यह अनुचित पूजा स्वीकार कर ली। देवों के हिस्से का हविष्यान्न कहीं नीचे गिर जाये तो कुत्ता जैसे चोरी से उसे खा जाता है वैसे ही तुमने भी यह गौरव स्वीकार कर लिया है। इसके लिए तुम सर्वथा अयोग्य हो। कृष्ण! तुम भी कैसे अनाड़ी हो जो इतना भी नहीं समझते कि यह तुम्हारी इज्जत नहीं हो रही, बल्कि तुम्हारी हंसी उड़ाई जा रही है! शायद तुम्हें यह घमण्ड हो रहा होगा कि तुम्हें बड़ा गौरव प्राप्त हो गया है; लेकिन मैं तुम्हें बताता हूँ कि पांडव तुम्हें जान-बूझकर बुद्धू बना रहे हैं। जैसे अन्धे को सुन्दर वस्तुएं दिखाई जायें या किसी हिजड़े को तरुणी ब्याह दी जाये, वैसे ही केवल तुम्हारा उपहास करने के लिए किसी राज्य के अधीश न होने पर भी तुम्हारा यह राजोचित सत्कार किया जा रहा है। क्या तुम इतना भी नहीं समझ पाते हो?”
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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