महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
1.देवव्रत
वसिष्ठ जब आश्रम लौटे तो नित्य की यज्ञानुष्ठान तथा पूजा-सामग्री प्रदान करने वाली गाय और उसके बछड़े को न पाया। गाय की खोज में उन्होंने सारा वन प्रदेश छान डाला, पर वह न मिली। तब मुनि ने अपने ज्ञान-चक्षु से देखा और उन्हें पता लगा कि यह तो वसुओं की करतूत है। वसुओं की इस धृष्टता पर मुनि वसिष्ठ का शान्त मन क्रुद्ध हो उठा। चूंकि वसुओं ने देवता होकर मनुष्य का-सा लालच किया था, इसलिये मुनि ने शाप दिया कि ये आठों वसु मनुष्य-लोक में जन्म लें। मुनि का तपोबल ऐसा था कि उनके शाप देते ही वसुओं के मन में घबराहट पैदा हो गई। बेचारे भागे आये और ऋषि के सामने गिड़गिड़ाने और उनको मनाने लगे। तब वसिष्ठ बोले- "मेरा शाप झूठा नहीं हो सकता तुम लोगों को मर्त्यलोक में जन्म लेना ही पड़ेगा। फिर भी प्रभास को छोड़कर बाकी सबके लिये इतना कर सकता हूँ कि वे पृथ्वी पर जन्म लेते ही मुक्त हो जायेंगे। चूंकि तुम्हें उभाड़ने वाला प्रभास था, इसलिए उसे काफी दिन मर्त्यलोक में जीवित रहना होगा-पर वह होगा बड़ा यशस्वी।" मुनि के आश्रम से लौटते हुए वसु गंगादेवी के पास गये और उनके सामने अपना दुखड़ा रोया। गंगा से उन्होंने प्रार्थना की कि पृथ्वी पर वे ही उनकी माता बनें और उत्पन्न होते ही उनको जल में डुबोकर मुक्त कर दें। गंगा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उनकी प्रार्थनानुसार गंगा ने यशस्वी शांतनु को लुभाया और उनके सात बच्चों को, जो वसु ही थे, नदी में प्रवाहित कर दिया। गंगा के चले जाने से राजा शान्तनु का मन विरक्त हो गया। उन्होंने भोग-विलास से जी हटा लिया और राज-काज में मन लगाने लगे। एक दिन राजा शिकार खेलते-खेलते गंगा के तट पर चले गये, तो एक अलौकिक दृश्य देखा। किनारे पर खड़ा देवराज के समान एक सुन्दर और गठीला युवक गंगा की बहती हुई धारा पर बाण चला रहा था। बाणों की बौछार से गंगा की प्रचण्ड धारा एकदम रुकी हुई थी। यह दृश्य देखकर शान्तनु दंग रह गये। इतने में ही राजा के सामने स्वयं गंगा आकर उपस्थित हो गईं। गंगा ने युवक को अपने पास बुलाया और राजा से बोलीं- "राजन! पहचाना मुझे और इस युवक को? यही तुम्हारा और मेरा आठवाँ पुत्र देवव्रत है। महर्षि वसिष्ठ ने इसे वेद-वेदांगों की शिक्षा दी है। शास्त्र-ज्ञान में शुक्राचार्य और रण-कौशल में परशुराम ही इसका मुकाबला कर सकते हैं। यह जितना कुशल योद्धा है, उतना ही चतुर राजनीतिज्ञ भी है। आपका पुत्र मैं आपको सौंप रही हूँ। अब ले जाइये इसे अपने साथ।" गंगादेवी ने देवव्रत का माथा चूमा और आशीर्वाद देकर राजा के साथ उसे विदा किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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