महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
106.धर्मपुत्र युधिष्ठिर
यह सुन युधिष्ठिर बोले- "द्विजवर, जिसे धर्म का ज्ञान ही नहीं है, जो पापी है, जिसने सत्पुरुषों को हानि पहुँचाई और जो असंख्य लोगों के नाश का कारण हुआ उसके लिये वीरों के योग्य स्वर्ग में स्थान मिला; परन्तु मेरे शीलवान, शूर भाईयों एवं द्रौपदी को कौन-सी गति प्राप्त हुई है? वे तो यहाँ दिखाई नहीं देते। कर्ण भी दिखाई नहीं देते और मेरे लिये प्राण त्यागने वाले अन्य राजा लोग ही दीख पड़ते हैं। मैं उन्हें देखना चाहता हूँ। विराट, द्रुपद, धृष्टकेतु, शिखंड़ी, द्रौपदी के पुत्र अभिमन्यु आदि वीर, जिन्होंने मेरी खातिर युद्ध की बलिदेवी में अपने प्राणों की आहुति दी थी, यहाँ क्यों नहीं दिखाई देते? मैं भी वहीं रहना चाहता हूं, जहाँ वे लोग होंगे। माता कुन्ती ने कर्ण को भी जलांजलि देने का जो आदेश दिया था उसका स्मरण करते ही मुझे दुःसह दुःख हो जाता है। जिस वीर कर्ण का वास्तविक परिचय जाने बिना अनजाने में मैंने वध करवा दिया, मैं उसके दर्शन करना चाहता हूँ। प्राणों से प्यारे भाई भीम, देवराज के समान तेज वाले अर्जुन, प्रिय नकुल और सहदेव, धर्म-परायणा द्रौपदी आदि सबको मैं देखना चाहता हूँ। जहाँ द्रौपदी और मेरे भाई न होंगे, वहाँ मैं नहीं रहना चाहता। जहाँ वे होंगे, वही मेरे लिये स्वर्ग है। इस स्थान को मैं स्वर्ग नहीं मानता।" युधिष्ठिर की ऐसी बातें सुनकर उपस्थित देवताओं ने कहा- "महाराज! जहाँ आपकी पत्नी और भाई रहते हैं, आप यदि वहाँ जाना चाहते हैं तो आनन्दपूर्वक जा सकते हैं।" देवताओं के आदेशानुसार एक देवदूत युधिष्ठिर को दूसरी तरफ ले जाने लगा। आगे-आगे देवदूत चला और उसके पीछे-पीछे युधिष्ठिर चले। रास्ते में अंधेरा छाया हुआ था। जो थोड़ा-बहुत दिखाई देता था वह भी भयानक प्रतीत होता था। रास्ता मांस और रक्त के कीचड़ से भरा था। चारों तरफ हड्डियां, लाशें और बाल पड़े हुए थे। जिधर देखो उधर कीड़े बिलबिला रहे थे और बड़ी बदबू आ रही थी। जहाँ-तहाँ कुछ आदमी पड़े कराह रहे थे। किसी का हाथ कटा था, किसी का पैर। यह वीभत्स दृश्य देखकर युधिष्ठिर उद्भ्रांत हो उठे। उन्हें कुछ समझ में ही नहीं आया कि बात क्या है। तरह-तरह के विचार मन में उठने लगे। उन्होंने देवदूत से पूछा- "इस तरह इस रास्ते और कितनी दूर चलना होगा? मेरे भाई कहाँ हैं?" "आगे जाने की इच्छा न हो तो लौट चलिये।" देवदूत ने जवाब दिया। वहाँ की दुर्गन्ध युधिष्ठिर के लिये असह्य हो रही थी। वह वापस लौटने की सोचने लगे और वह लौटने को ही थे कि चारों ओर से कइयों का करुण क्रन्दन एक साथ सुनाई देने लगा। "हे धर्म-पुत्र! लौटिये नहीं। हम पर दया करके कम-से-कम एक मुहूर्त के लिये ठहरिये। आपके यहाँ आते ही सुवास भरी पवित्र हवा बहने लगी है और हमें उससे बहुत सुख मिलता है। कुंती-पुत्र! आपके दर्शन-मात्र से ही हमें सुख पहुँच रहा है। आपका यहाँ आना हुआ तभी हमारी दुःसह यातना एकदम कम हो गई है। आप कृपा करके एक मुहूर्त तक यहीं रहिये, जिससे हमारी यह पीड़ा कुछ कम हो सके।" व्यथा से भरे इन दीन स्वरों को सुनकर युधिष्ठिर का गला भर आया। पर जब करुण स्वर में रोने की आवाज सुनाई दी तब तो युधिष्ठिर से न रहा गया। "अरे रे! इन बेचारों को बड़ी पीड़ा पहुँच रही है।" रुद्ध-कंठ से केवल यही कहते वह वहीं खड़े रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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