महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
105.श्रीकृष्ण का लीला-संवरण
नशे में चूर दूसरे लोगों ने कृतवर्मा की बातों का समर्थन किया और सात्यकि की निन्दा करने लगे। बस, फिर क्या था। उपस्थित यादवों के दो दल बन गये और दोनों में झगड़ा शुरू हो गया। बड़ी मार-काट मची। "यह लो! जिस पापी ने सोते हुओं की हत्या की थी वह अभी अपने पाप का फल भुगतेगा।" कहते-कहते सात्यकि हाथ में तलवार लिये कृतवर्मा पर टूट पड़ा और एक ही बार में उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। यह देख कई यादवों ने सात्यकि को घेर लिया और शराब के प्यालों और मटकों को उस पर फेंक-फेंककर मारने लगे। श्रीकृष्ण के बेटे प्रद्युम्न ने सात्यकि की तरफ से उन लोगों का मुकाबला किया तो उसको भी बहुत से लोगों ने घेर लिया। थोड़ी ही देर में सात्यकि और प्रद्युम्न दोनों मारे गये। यह देख श्रीकृष्ण भी क्रोध में आ गये और समुद्र-किनारे जो लम्बी घास उगी हुई थी, उसी का एक गुच्छा उखाड़कर विपक्षियों पर टूट पड़े। बस, सभी यादवों ने एक-एक घास का गुच्छा उखाड़ लिया और उसी से एक-दूसरे पर वार करने लगे। ऋषियों के शाप के प्रभाव से मूसल की राख से उगे घास के पौधे यादवों के उखाड़ते ही मूसल बन गये और ये यादव उन्हीं मूसलों से एक-दूसरे पर आघात करते हुए वहीं कट मरे। शराब के नशे के कारण हुए इस फसाद में यादव वंश के सभी लोग समूल नष्ट हो गये। यह वंश-नाश देखकर बलराम को असीम शोक हुआ और उन्होंने वहीं योग-समाधि में बैठकर शरीर त्याग दिया। उनके मुख से सफेद सर्प के रूप में एक अलौकिक ज्योति निकली और समुद्र में विलीन हो गई और बलराम का अवतार-कृत्य समाप्त हो गया। सब बंधु-बांधवों का सर्वनाश हुआ देखकर श्रीकृष्ण भी ध्यानमग्न हो गये और समुद्र के किनारे वाले वन में अकेले विचरण करते रहे। जो-कुछ हुआ, उस पर विचार करके उन्होंने जान लिया कि उनके भी संसार छोड़कर जाने का समय आ गया। यह सोचते-सोचते वह भी वहीं जमीन पर एक पेड़ के नीचे लेट गये। इतने में कोई शिकारी शिकार की तलाश में घूमता-फिरता उधर से आ निकला। सोये हुए श्रीकृष्ण को शिकारी ने दूर से हिरन समझा और धनुष तानकर एक तीर मारा। तीर श्रीकृष्ण के तलुए को छेदता हुआ शरीर में घुस गया और श्रीकृष्ण के लीला-संवरण करने का निमित्त बन गया। इस प्रकार अलौकिक कीर्ति-सम्पन्न श्रीकृष्ण का अवतार-कृत्य समाप्त हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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