महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
102.पांडवों का धृतराष्ट्र के प्रति बर्ताव
युधिष्ठिर ने अपने भाईयों को आज्ञा दे रखी थी कि पुत्रों के विछोह से दु:खी राजा धृतराष्ट्र को किसी भी तरह की व्यथा न पहुँचने पाये। सिवाय भीमसेन के और सब पांडव युधिष्ठिर के ही आदेशानुसार व्यवहार करते थे। पांडव वृद्ध धृतराष्ट्र का खूब आदर करते हुए उन्हें हर प्रकार का सुख एवं सुविधा पहुँचाने के प्रयत्न में लगे रहते, जिसमें धृतराष्ट्र को अपने पुत्रों का अभाव महसूस न हो। धृतराष्ट्र भी पांडवों से स्नेहपूर्ण व्यवहार किया करते थे। न तो पांडव उन्हें अप्रिय समझते थे और न धृतराष्ट्र ही पांडवों को अप्रिय समझते थे। परन्तु भीमसेन कभी-कभी ऐसी बातें या काम कर दिया करता था जिससे धृतराष्ट्र के दिल को चोट पहुँचती। युधिष्ठिर के राजाधिराज बनने के थोड़े ही दिन बाद भीमसेन धृतराष्ट्र की किसी आज्ञा को कार्यरूप में परिणत न होने देता था। कभी धृतराष्ट्र को सुनाते हुए कह भी देता कि दुर्योधन और उसके साथी अपनी नासमझी के कारण मारे गये,आदि। बात यह थी कि दुर्योधन-दुःशासन आदि के किये अत्याचारों और अपमानों का दुःखद स्मरण भीमसेन के मन में अमिट रूप से अंकित हो चुका था। इस कारण न तो वह अपना पुराना वैर भूल सकता था और न क्रोध को ही दबा सकता था। कभी-कभी वह गांधारी तक के आगे उल्टी-सीधी बातें कर दिया करता था। भीमसेन की इन तीखी बातों से धृतराष्ट्र के हृदय को बड़ी भारी चोट पहुँचती थी। गांधारी को भी इस कारण बहुत दुःख होता था। परन्तु फिर भी वह विवेकशीला थीं और धर्म का मर्म जानती थीं; इसलिये भीमसेन की बातें चुपचाप सह लिया करतीं और धर्म की प्रतिमूर्ति कुन्ती से स्फूर्ति पाकर धीरज धर लिया करतीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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