महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
100.उत्तंक मुनि
थोड़ी देर में शंख और सुदर्शनचक्र लिये भगवान श्रीकृष्ण उत्तंक के सामने प्रकट हुए। उत्तंक ने व्यथित होकर कहा- "पुरुषोत्तम! मेरी इस तरह परीक्षा लेना क्या तुम्हारे लिये ठीक था? मैं ब्राह्मण हूँ। प्यास लगने पर भी किसी चाण्डाल के हाथों मशक वाला गन्दा पानी कैसे पी सकता था? तुमको मेरे लिये ऐसा पानी भेजना क्या उचित था?" श्रीकृष्ण हंसकर बोले- "मुनिवर! आपने पानी की इच्छा की तो मैंने देवराज से कहा कि उत्तंक मुनि को अमृत ले जाकर पिलाओ। देवराज ने कहा कि मनुष्य को अमृत नहीं पिलाया जा सकता। कोई और वस्तु भले ही भिजवाइए। अन्त में मेरे आग्रह करने पर देवराज ने तो मान लिया, पर कहा- 'मैं चाण्डाल के रूप में जाऊंगा और पानी के रूप में अमृत पिलाऊंगा। यदि उत्तंक ने न पिया तो नहीं पिलाऊंगा।' मैं देवराज की बात पर राजी हो गया कि आप तो बड़े ज्ञानी और महात्मा हैं। आपके लिये तो चाण्डाल और ब्राह्मण समान होंगे और चाण्डाल के हाथ का पानी पीने में नहीं सकुचायेंगे। अब आपके इस इनकार करने से इन्द्र के हाथों मेरी पराजय ही हो गई।" इतना कहकर श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और उत्तंक बहुत ही लज्जित हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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