महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
99.उत्तंक मुनि
उत्तंक मुनि ने जब यह देखा-सुना तो एकदम शांत हो गये। तब भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर कहा- "मुनिवर, मैं अब आपको कुछ वरदान देना चाहता हूँ। आप जो चाहें मांग लें।" उत्तंक ने कहा, "हे अच्युत! तुम्हारा साक्षात्कार ही मेरे लिए वरदान स्वरूप है। तुम्हारे विश्वरूप के दर्शन करने का जो सौभाग्य प्राप्त हुआ है इससे मेरा जीवन सार्थक हुआ। बस, मुझे किसी और वरदान की चाह नहीं।" परन्तु भगवान ने बहुत आग्रह किया कि कोई वरदान मांगिये ही। उत्तंक मुनि मरुभूमि के आसपास घूमने-फिरने वाले निःस्पृह तपस्वी थे। अतः उन्होंने कहा- "प्रभो! यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो इतनी कृपा करो कि जब भी और जहाँ कहीं भी मुझे प्यास बुझाने के लिये जल की आवश्यकता हो, मुझे वहीं जल मिल जाया करे।" "बस! और कुछ नहीं चाहिए?" यह कहकर श्रीकृष्ण हंस पड़े और मुनि को वरदान देकर द्वारका की ओर रवाना हो गये। बहुत दिन बाद, एक बार उत्तंक वन में फिर रहे थे तो उन्हें बड़ी प्यास लगी। बहुत ढूंढ़ने पर भी कहीं पानी नहीं मिला। तब उत्तंक ने श्रीकृष्ण का ध्यान किया और तुरन्त उनके सामने एक चाण्डाल खड़ा दिखाई दिया। उस चाण्डाल की गन्दी सूरत,उसकी चमड़े की मशक और उसके पास खड़े शिकारी कुत्तों को देखकर उत्तंक ने नाक-भौं सिकोड़ ली और उसका पानी लेने से इनकार कर दिया। उत्तंक को बड़ा क्रोध हुआ कि श्रीकृष्ण ने मुझे झूठा वरदान कैसे दिया? उधर चाण्डाल सामने खड़ा बार-बार मशक बढ़ाकर कह रहा था कि पानी पी लें। ज्यों-ज्यों वह आग्रह करता था त्यों-त्यों मुनि उत्तंक का क्रोध भी बढ़ता जाता था। एकाएक चाण्डाल कुत्तों समेत आंखों से ओझल हो गया। चाण्डाल के यों अचानक अन्तर्धान हो जाने पर उत्तंक को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कौन था यह? निश्चय ही चाण्डाल नहीं है। यह तो मेरी परीक्षा हुई थी। अरे रे, मुझसे भारी भूल हो गई। मेरे ज्ञान ने भी समय पर मेरा साथ न दिया। यदि चाण्डाल ही था तो बिगड़ क्या गया था? मैंने उसके हाथ का पानी पीने से इनकार करके बड़ी मूर्खता की। यह सोचकर उत्तंक मुनि पश्चात्ताप करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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