महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
99.ईर्ष्या
लेकिन देवराज इंद्र को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। वह बोले- "आप यह कैसी अजीब बात बता रहे हैं। अग्निदेव! अरे तुम तो स्वयं दूसरों को जलाने वाले हो! कोई तुम्हें कैसे भस्म कर सकता है?" अग्नि ने ताना देते हुए कहा- "ऐसा न कहिये, देवराज! दूर क्यों जाते हैं; ब्रह्म- तेज एवं ब्रह्मचर्य की शक्ति से तो आप स्वयं भी अपरिचित नहीं है!" देवराज को ब्राह्मणों का अपमान करने के कारण जो कष्ट उठाने पड़े थे अग्निदेव का उनकी ओर ही इशारा था। इंद्र समझ गये और अग्नि से निराश होकर उन्होंने एक गन्धर्व को बुलाकर आज्ञा दी कि मरुत के पास जाकर मेरा यह संदेश सुनाओ कि यदि वह संवर्त का साथ न छोड़ेगा तो मैं उसका शत्रु बन जाऊंगा और फिर उसका सर्वनाश निश्चित ही है। आज्ञा पाकर गन्धर्व मरुत राजा के पास गया और इन्द्र का संदेश कह सुनाया। पर मरुत राजा इन्द्र की बात मानने को तैयार नहीं हुआ। वह बोला, "अपने मित्र से छल करना घोर पाप है। मैं इस समय संवर्त का साथ नहीं छोड़ सकता।" गंधर्व ने कहा- "राजन, जब इन्द्र तुम पर वज्र-प्रहार करेंगे तब तुम कैसे बचोगे?" गंधर्व की बात पूरी भी न हो पाई थी कि आकाश में इन्द्र के वज्र की कड़क सुनाई देने लगी। उसे सुनकर राजा मरुत का हृदय दहल गया। उसने समझा कि इन्द्र ने हमला कर दिया है। वह संवर्त के पास गया और उन्हीं की शरण ली। संवर्त ने राजा को अभय देकर कहा- "डरो मत!" और अपनी तपस्या की शक्ति का इन्द्र पर प्रयोग कर दिया। बस, वही इन्द्र जो आक्रमणकारी बनकर आये थे, मूर्तिमान शांति की तरह नम्रमापूर्वक आकर राजा मरुत के यज्ञ में सम्मिलित हुए और सानन्द हवि ग्रहण कर चले गये। बृहस्पति ने ईर्ष्या-वश जो प्रयत्न किये थे सब तरह बेकार हो गये और ब्रह्मचर्य के तेज की जीत हुई। ईर्ष्या एक ऐसा पाप है जो बड़े-से-बड़े को भी लग जाता है। विद्या की अधीश्वरी सरस्वती तक को लजाने वाले बृहस्पति जब ईर्ष्या के वशीभूत हुए तो साधारण लोगों का का तो पूछना ही क्या है! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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