महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
96.सांत्वना कौन दे?
वृद्ध राजा ने प्रतिमा को भीम समझकर ज्योंही छाती से लगाया त्योंही उन्हें याद हो आया कि मेरे कितने ही प्यारे बेटों को इस भीम ने मार डाला है। इस विचार के मन में आते ही धृतराष्ट्र क्षुब्ध हो उठे और उसे जोरों से छाती से लगाकर कस लिया। प्रतिमा चूर-चूर हो गई। पर प्रतिमा के चूर हो जाने के बाद धृतराष्ट्र को खयाल आया कि मैंने यह क्या कर डाला। वह दुःखी हो गये और शोक- विह्वल होकर बोले- "हाय! क्रोध में आकर मूर्खतावश मैंने यह क्या कर डाला। भीम की हत्या कर दी!" और यह कहकर बुरी तरह विलाप करने लगे। इस पर श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र से कहा- "राजन, क्षमा करें। मुझे पहले ही से मालूम था कि क्रोध में आकर आप ऐसा काम करेंगे। इसलिए उस अनर्थ को टालने के लिये मैंने पहले से ही उचित प्रबंध कर रखा था। आपने जिसको नष्ट किया वह भीमसेन का शरीर नहीं, बल्कि लोहे की मूर्ति थी। आपके क्रोध का ताप उस प्रतिमा पर ही उतरकर शांत हो गया। भीमसेन अभी जीवित है।" यह सुन धृतराष्ट्र के मन को धीरज बंधा और उन्होंने अपना क्रोध शांत कर लिया। उन्होंने सभी पांडवों को आशीर्वाद देकर विदा किया। धृतराष्ट्र से आज्ञा पाकर पांचों भाई श्रीकृष्ण के साथ देवी गांधारी के पास गये। पांडवों के जाने से पहले ही व्यास जी गांधारी के पास पहुँच चुके थे और शोकातुर गांधारी को सांत्वना देते हुए कह रहे थे- "देवी! पांडवों पर नाराज न होओ। उनके प्रति मन में द्वेष को स्थान न दो। याद है तुम्हें, युद्ध छिड़ने से पहले तुमने ही कहा था कि जहाँ धर्म होगा, जीत भी उन्हीं की होगी और आखिर वही हुआ। जो बातें हो चुकी हैं, उनका विचार करके मन में वैर रखना उचित नहीं। तुम्हारी सहनशीलता और धैर्य का यश संसार-भर में फैला हुआ है। अब तुम अपने स्वभाव को न बदलना।" गांधारी बोली- "भगवन! मैं जानती हूँ कि पुत्रों के वियोग के दुःख से मेरी बुद्धि अस्थिर हो उठी है, परन्तु फिर भी पांडवों के सौभाग्य पर मैं ईर्ष्या नहीं करती। आखिर वे भी मेरे लिये पुत्रों के बराबर हैं। मैं जानती हूँ कि दुःशासन और शकुनि ही इस कुल के नाश के मूल कारण थे और यह भी मुझे विदित है कि अर्जुन और भीम निर्दोष हैं। अपनी सत्ता के मद के कारण मेरे पुत्रों ने यह युद्ध छेड़ा था। अतः उनका मारा जाना उचित ही था और इसके लिये मैं पांडवों को कुछ भी दोष नहीं देना चाहती। परन्तु एक बात सुनकर मुझे खेद व शोक हुआ। श्रीकृष्ण के देखते हुए भीमसेन ने दुर्योधन को गदा-युद्ध के लिये ललकारा, दोनों में युद्ध हुआ। यहाँ तक भी ठीक था। भीमसेन जानता था कि गदा- युद्ध में वह दुर्योधन की बराबरी नहीं कर सकता। लेकिन भीम ने नियम के विरुद्ध दुर्योधन को कमर के नीचे गदा मारकर उसे जो गिरा दिया, वह मुझसे नहीं सहा जाता।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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