महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
95.अब विलाप करने से क्या लाभ
अश्वत्थामा और भीमसेन में युद्ध छिड़ गया लेकिन अन्त में अश्वत्थामा हार गया। वह अपनी पराजय के चिह्न के रूप में अपने माथे का उज्ज्वल रत्न पांडवों को भेंट करके अरण्य में चला गया। भीमसेन ने वह रत्न द्रौपदी के हाथ में रखा और कहा- "कल्याणी! यह रत्न तुम्हारी खातिर लाया हूँ। जिस दुष्ट ने तुम्हारे पुत्रों की हत्या की वह परास्त कर दिया गया। दुर्योधन मारा गया और दुःशासन का लहू भी मैंने पिया। इस प्रकार मैंने अपनी सारी प्रतिज्ञाएं पूरी कर ली। आज मुझे बड़ी शांति अनुभव हो रही है।" भीमसेन का दिया रत्न द्रौपदी युधिष्ठिर को देकर नम्रता के साथ बोली- "निष्पाप धर्मराज युधिष्ठिर! इस रत्न को आप अपने मस्तक पर धारण करे।" हस्तिनापुर का सारा नगर निःसहाय स्त्रियों और अनाथ बच्चों के रोने-कलपने के हदय-विदारक शब्दों से गूंज उठा। युद्ध समाप्त होने का समाचार पाकर हजारों निःसहाय स्त्रियों को लेकर वृद्ध महाराज धृतराष्ट्र कुरुक्षेत्र की समर-भूमि में गये, जहाँ एक ही वंश के लोगों ने-भाई बन्दों ने-एक-दूसरे से भयानक युद्ध करके अपने कुल का सर्वनाश कर डाला था। अन्धे धृतराष्ट्र ने बीती बातों का स्मरण करते हुए बहुत विलाप किया। पर उनके विलाप को वहाँ सुनता कौन? वहाँ तो श्रृगाल और कुत्ते बेरोक-टोक घूम रहे थे और जो अब तक सबके प्रिय थे उनकी लाशों को खींचते-खाते थे। चील, कौए और गिद्ध लाशों पर से मांस नोंचते-खसोटते थे। उन स्त्रियों और वृद्ध धृतराष्ट्र का विलाप सुनकर वे सब एक जोर का कोलाहल कर उठे, मानो कह रहे हों कि अब विलाप करने से क्या लाभ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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