महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
91.कर्ण भी मारा गया
इस पर शल्य ने कर्ण को दिलासा देते हुए कहा- "कर्ण! तुम तो वीर हो, इस तरह हताश होना तुम्हें शोभा नहीं देता। इस समय तो दुर्योधन को, जो भग्न-हृदय-सा हो गया है, सांत्वना देनी चाहिये। तुम्हें तो चाहिये था कि उसे धीरज देते। उल्टे तुम्हीं धीरज गंवा बैठे-हिम्मत न हारो।" दु:शासन के मारे जाने पर अब सबकी आंखें तुम्ही को देख रही हैं, तुम्हीं सबका आसरा बने हुए हो। युद्ध का सारा दायित्व अब तुम्हीं को वहन करना होगा। क्षत्रियोचित धर्म से काम लो। अर्जुन के साथ युद्ध करके या तो विजय का यश प्राप्त करो या वीरोचित स्वर्ग।" सारथी बने हुए शल्य की ये बातें सुनकर कर्ण गुस्से में आ गया। उसकी आंखे लाल हो गईं और वह असीम क्रोध के साथ अर्जुन पर टूट पड़ा। "दुर्योधन, इस युद्ध को बंद कर दो! आपसी वैर भूल जाओ! पांडवों से संधि कर लो!" द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा ने कहा। पर दुर्योधन झल्लाकर बोला- "पापी भीमसेन ने जंगली जानवर की तरह भैया दुःशासन का खून चूसते हुए जो कुछ कहा, क्या वह तुमने नहीं सुना? तुम तो उसके पास ही खड़े थे! तो फिर संधि कर लेने की बेकार बातें क्यों करने लगे हो? हमारे लिये अब संधि-चर्चा बेकार है।" अश्वत्थामा से यह कहकर दुर्योधन ने सेना की व्यूह-रचना को फिर से सुधार कर पांडवों पर हमला करने की आज्ञा दे दी। इधर अर्जुन और कर्ण के बीच घोर संग्राम छिड़ा हुआ था। कर्ण ने अर्जुन पर एक ऐसा बाण चलाया; जो काले नाग की तरह जहर की आग उगलता गया। अर्जुन की ओर उस भयानक तीर को आता देखकर कृष्ण ने रथ को पांव के अंगूठे से दबा दिया, जिससे रथ जमीन में पांच अंगुल धंस गया। कृष्ण की इस युक्ति से अर्जुन मरते-मरते बचा। कर्ण का चलाया हुआ सर्पमुखास्त्र फुफकारता हुआ आया और अर्जुन का मुकुट उड़ा ले गया। इस पर अर्जुन के क्रोध का ठिकाना न रहा। जोश के साथ कर्ण पर बाण-वर्षा कर दी। इतने में क्या हुआ कि कर्ण के रथ का बायीं तरफ का पहिया अचानक धरती में धंस गया। इससे कर्ण घबरा गया और बोला- "अर्जुन! जरा ठहरो! मेरे रथ का पहिया कीचड़ में फंस गया है। जरा उसको उठाकर ठीक जमीन पर रख दूं। तब तक के लिये जरा रुक जाओ। पाण्डु -पुत्र, तुम्हें धर्म-युद्ध करने का जो यश प्राप्त हुआ है उसे व्यर्थ ही न गंवाओ। मैं जमीन पर खड़ा रहूँ और तुम रथ पर बैठे-बैठे मुझ पर बाण चलाओ, यह ठीक नहीं होगा। जरा रुको, मैं अभी पहिया उठाकर ठीक जमीन पर किये देता हूँ। तब तक के लिये अपनी बाण-वर्षा बंद रखो।" कर्ण की ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण बोले- "कर्ण! तुम भी धर्म की बातें करने लगे! यह ठीक रहा! अब मुसीबत पड़ने पर धर्म का ख्याल आया तुमको! जब दुःशासन, दुर्योधन और तुम द्रौपदी को भरी सभा में घसीटकर लाये थे उस वक्त तुम्हें धर्म की याद आयी थी? नौसीखिये युधिष्ठिर को जुए के कुचक्र में फंसाते वक्त तुम्हारा धर्म कहाँ जा छिपा था? जब पांडव प्रतिज्ञा पूरी करके बारह साल का वनवास और एक साल का अज्ञातवास करके लौटे, तब तुम लोगों ने उनका राज्य वापस देने से इनकार किया था। क्या वह धर्म था? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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