महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
90.आचार्य द्रोण का अंत
द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से पूछा- "बेटा युधिष्ठिर! क्या यह बात सच है कि मेरा प्रिय पुत्र अश्वत्थामा मारा गया?"आचार्य द्रोण को विश्वास था कि युधिष्ठिर तीनों लोकों के आधिपत्य के लिये भी झूठ नहीं बोलेंगे। इसी कारण उन्होंने युधिष्ठिर से ही यह प्रश्न किया था। यह देखकर श्रीकृष्ण चिन्तित हो उठे। उन्हें भय हुआ कि कहीं युधिष्ठिर अपनी धर्म-परायणता के कारण पांडवों के नाश का कारण न बन जायें। युधिष्ठिर असत्य बोलते हुए डरे, पर विजय प्राप्त करने की लालसा भी उनको विकल कर रही थी। वह बडी दुविधा में पड़ गये। फिर भी किसी तरह जी कड़ा करके जोर से बोले- "हां, अश्वत्थामा मारा गया।" परंतु यह कहते-कहते फिर उनको धर्म का भय हो गया। इस कारण अंत में धीमे स्वर में यह भी कह दिया। "मनुष्य नहीं, हाथी।" दूसरे साथ ही भीम ने तथा अन्य पांडवों ने जोरों का शंखनाद और सिहंनाद किया कि युधिष्ठिर के अंतिम वचन उस शोर में लुप्त हो गये। उस दिन की इन घटनाओं का हाल सुनाते हुए संजय ने कहा- "राजन! इस प्रकार युधिष्ठिर के असत्य-भाषण के कारण बड़ा अधर्म हो गया।" पौराणिक कहते हैं कि जैसे ही युधिष्ठिर के मुंह से यह असत्य बात निकली त्योंही उनका रथ, जो पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर-ही-ऊपर चलता रहता था, एकदम जमीन से लगकर चलने लगा। तात्पर्य यह कि संसार झूठ का आदी हो चुका था, इस कारण युधिष्ठिर के सत्य-भाषण का उससे कोई संबंध न था। पर अब, जबकि जीत पाने की इच्छा से उन्होंने भी असत्य-भाषण किया तो उनका रथ भी पापी धरातल से जा टिका। युधिष्ठिर के मुंह से यह सुनते ही कि अश्वत्थामा मारा गया, द्रोण के मन में विराग छा गया। जीवित रहने की इच्छा ही उनके मन में न रही। जब वह इस मनःस्थिति में थे तभी भीमसेन कठोर वाक् बाणों से उनको और सताने लगा। वह बोला- "ब्राह्मण लोगों के कर्तव्य भ्रष्ट हो जाने के कारण और क्षत्रियोचित वृत्ति धारण कर लेने के कारण ही क्षत्रियों पर यह विपदा आ गई। यदि ब्राह्मण लोगों ने अधर्म का मार्ग न अपनाया होता, तो कितने ही क्षत्रिय राजाओं के प्राण बच गये होते। आप तो इस तथ्य से परिचित हैं ही कि अहिंसा ही उत्कृष्ट धर्म है और यह भी जानते है कि ब्राह्मण ही उस महान धर्म के आधार स्तम्भ माने जाते हैं। फिर स्वयं आप भी तो उच्च ब्राह्मण कुल के है। तब आपने हिंसा-वृत्ति क्यों अपनाई और स्वार्थ-वश होकर पाप करने पर क्यों तुले हुए हैं?" एक तो यों ही पुत्र के बिछोह की खबर सुनकर द्रोण के मन से प्राणों का मोह टूट चुका था और वैराग्य छा रहा था ऊपर से भीमसेन के मुंह से यह कड़वी बातें सुनकर उन्हे और भी सख्त पीड़ा पहुँची। उन्होंने तुरन्त अपने सारे अस्त्र-शस्त्र फेंक दिये और रथ पर ही आसन जमाकर, ध्यानमग्न होकर बैठ गये। इतने में द्रुपद का पुत्र धृष्टद्युम्न हाथ में तलवार लेकर द्रोण पर झपटा। यह देखकर चारों ओर हाहाकार मच गया और इसी हाहाकार के बीच धृष्टद्युम्न ने ध्यान-मग्न आचार्य की गर्दन पर खड्ग से जोर का वार किया। आचार्य द्रोण का सिर तत्काल ही धड़ से अलग होकर गिर पड़ा। भरद्वाज-पुत्र द्रोण की आत्मा दिव्य ज्योति से जगमगाती हुई स्वर्ग सिधार गई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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