महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
62.गीता की उत्पत्ति
सेनापति भीष्म ने कौरव-सेना के वीरों को उत्साहित करते हुए कहा- "वीरो! वह देखो तुम्हारे सामने स्वर्ग का द्वार तुम्हारा स्वागत करने के लिये खुला पड़ा है। तुमको ऐसा अहोभाग्य प्राप्त हो सकता है कि तुम देवराज इन्द्र के साथ या ब्रह्मा के साथ इन्द्रलोक या ब्रह्मलोक में जाकर निवास करो। तुम सब उसी मार्ग का अनुसरण करो, जिस पर तुम्हारे बाप-दादाओं एवं उनके पूर्वजों के पवित्र चरण-चिह्न अंकित हैं। तुम्हारे विख्यात वंशों का यही सनातन धर्म रहा है कि या तो विजय का यश प्राप्त करें, या वीरोचित स्वर्ग। अत: वीरों! चिंता छोड़ दो और आनंद एवं उत्साह के साथ जूझ पड़ो; यश और कीर्ति प्राप्त करो। घर में पलंग पर पड़े-पड़े बीमारी से मरना क्षत्रियोचित मृत्यु नहीं है। क्षत्रिय का यही धर्म है कि समर-भूमि में जौहर दिखलावे; विजय प्राप्त करे या शस्त्र-प्रहार से मृत्यु को प्राप्त हो।" सेनापति भीष्म की ये उत्साह-भरी बातें सुनकर वीर योद्धाओं ने भेरियां बजाकर कौरवों का जय-जयकार किया, मानो मरते दम तक युद्ध करने और वीरगति प्राप्त करने की घोषणा की। कौरव-सेना के वीरों की ध्वजायें बड़ी शान से रथों पर फहरा रही थीं। भीष्म की ध्वजा में ताड़ के पेड़ और तारिकाओं का चित्र अंकित था। सिंह की पूंछ से चित्रित अश्वत्थामा की ध्वजा हवा में लहरा रही थी। कौरवों की सेना की व्यूह-रचना देखकर युधिष्ठिर ने अर्जुन को आज्ञा दी- "शत्रुओं की सेना संख्या में बहुत बड़ी मालूम होती है। हमारी सेना कुछ कम है, इस कारण इसकी व्यूह-रचना ऐसे करो, जिसमें वह अधिक न फैल जाये। एक जगह सब वीरों को इकट्ठे रहकर लड़ना होगा। अत: सेना को सूची-मुख (सूई की नोंक के समान) व्यूह में सज्जित करो।" इस प्रकार दोनों पक्ष की सेनाओं की व्यूह-रचना हो गई। अर्जुन ने युद्ध के लिये तैयार हुए वीरों को देखा तो उसके मन में शंका हुई कि हम यह क्या करने जा रहे हैं। उसने अपनी यह शंका श्रीकृष्ण पर प्रकट की और तब अर्जुन के इस भ्रम को दूर करने के लिये श्रीकृष्ण ने जिस कर्मयोग का उपदेश दिया, वह तो विश्वविख्यात है। श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में वह ग्रंथ आज भी सारे संसार के लोगों को-चाहे वे किसी भी देश के हों- मुक्ति-मार्ग पर चलने का रास्ता बताता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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