महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
61.असहयोग
दोनों को इस प्रकार वाक-युद्ध करते देख दुर्योधन बोला- "पितामह! आप शांत हो जायें। मैं तो आप दोनों ही की सहायता का अभिलाषी हूँ और दोनों की ही मदद से विजय प्राप्ति की आशा कर रहा हूँ। दोनों की महान वीरता का परिचय देने वाले हैं और कल सूर्योदय होते ही युद्ध शुरू होने वाला है। ऐसे अवसर पर हम आपस में न झगड़ें।" भीष्म तो शांत हो ही गये थे; किंतु कर्ण अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। उसने यही हठ पकड़ ली कि जब तक भीष्म सेनापति रहेंगे तब तक वह हथियार नहीं उठायेगा। लाचार होकर दुर्योधन को यह मान लेना पड़ा और कर्ण का प्रण पूरा होकर रहा। महाभारत के युद्ध में पहले दस दिन कर्ण ने लड़ाई में बिलकुल हिस्सा नहीं लिया। हां, उसने अपनी सेना को अवश्य लड़ाई में भेजा। दस दिन पूरे हुए। महारथी भीष्म का शरीर बाणों से बिंधकर छलनी-सा बन चुका था। युद्ध के मैदान में वह हताहत पड़े थे, तब जाकर कर्ण को होश आया और उसे अपनी भूल महसूस हुई। उसने भीष्म के पैर पकड़कर क्षमा मांगी और भीष्म ने कर्ण को क्षमा ही नहीं किया, बल्कि आशीर्वाद भी दिया। इस पर स्वयं कर्ण की प्रेरणा से आचार्य द्रोण सेनापति बनाये गये। द्रोणाचार्य के सेनापतित्व में कर्ण ने युद्ध में हिस्सा लिया। द्रोणाचार्य भी खेत रहे। उनके बाद फिर कर्ण ने कौरव सेना का सेनापतित्व स्वीकार करके युद्ध का संचालन किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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