महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
59.बलराम
इधर युद्ध की तैयारियां हो रही थीं और उधर एक रोज श्री बलराम पांडवों की छावनी में एकाएक जा पहुँचे। नीले रंग का रेशमी वस्त्र पहने, सिंह की-सी चाल तथा उभरी हुई भुजाओं वाले हलधर को आया देखकर श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर आदि बड़े प्रसन्न हुए। सबने उठकर उनका समुचित आदर-सत्कार किया। बलराम जी ने अपने बड़े-बूढ़े विराटराज और द्रुपदराज को विधिवत प्रणाम किया और धर्मराज के पास बैठ गये। "भारत-वंश में लालच, क्रोध और द्वेष का बोलबाला हो गया है। शांति की चेष्टाएं नाकाम रहीं। और सुन रहा हूँ कि कुरुक्षेत्र की समरभूमि में अब युद्ध भी छिड़नेवाला है। यही सुनकर मैं यहाँ आया हूँ कि अपना दिल आप लोगों के सामने कुछ हलका कर अऊँ" -कहते-कहते बलराम का गला भर आया। ठंडी आहें भरते वे कुछ देर चुप रहे। फिर बोले- "धर्मपुत्र! अब संसार का सत्यानाश ही होने वाला है। भयानक,वीभत्स दृश्य देखने में आयेंगे। पृथ्वी का हरा-भरा शरीर, कटे हुए अंगों से और खूनी कीचड़ से सनने वाला है। विधि के प्रपंच में पड़कर संसार-भर के राजा–महाराजा और संपूर्ण क्षत्रिय जाति के लोग, पागलों की भाँति मृत्यु की खोज में निकले हैं और यहाँ आकर इकट्ठे हुए हैं। कितनी ही बार मैंने कृष्ण को कहा कि हमारे लिये तो पांडव और कौरव दोनों की एक समान हैं। दोनों को मूर्खता करने की सूझी है। इसमें हमें बीच में पड़ने की आवश्यकता नहीं, पर कृष्ण ने मेरी नहीं मानी। अर्जुन के प्रति उसका इतना स्नेह है कि उसने तुम्हारे पक्ष में रहकर युद्ध करना भी स्वीकार किया और जिस तरफ कृष्ण हो, उसके विपक्ष में मैं भला कैसे जाऊँ? भीम और दुर्योधन दोनों ने ही मुझसे गदा-युद्ध सीखा है। दोनों ही मेरे शिष्य हैं। दोनों पर मेरा एक जैसा प्यार है। इन दोनों कुरुवंशियों को यों आपस में लड़-मरते देखकर मुझसे नहीं रहा जाता। लड़ो तुम लोग। पर यह सब देखने को मैं यहाँ नहीं रह सकता। मुझे अब संसार से विराग हो गया है। अत: मैं तो तीर्थ करने जा रहा हूँ।" भ्रातृ-कलह के इस भीषण दृश्य को देखकर बलराम को दु:सह क्षोभ हुआ। उन्होंने भगवान का ध्यान किया और तीर्थ-यात्रा को निकल पड़े। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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