महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
48.विराट का भ्रम
युधिष्ठिर को भय था कि कहीं राजा के हाथों उनको जो चोट लगी है उसे देखकर अर्जुन गुस्से में कोई गड़बड़ी न कर दे। यही सोच उन्होंने द्वारपाल को ऐसा आदेश दिया। राजकुमार उत्तर ने प्रवेश करके पहले पिता को नमस्कार किया और फिर कंक को प्रणाम करना ही चाहता था कि उनके मुख पर से खून बहता देखकर चकित रह गया। उसे अर्जुन से मालूम हो चुका था कि कंक तो असल में महाराज युधिष्ठिर ही हैं। उसने पूछा- "पिताजी, इन धर्मात्मा को किसने यह पीड़ा पहुँचाई?" विराट ने कहा-"बेटा! जब मैं तुम्हारी विजय की खबर से खुश होकर तुम्हारी प्रशंसा करने लगा तो इन्होंने ईर्ष्या के मारे बृहन्नला की प्रशंसा करते हुए तुम्हारी वीरता और विजय की अवज्ञा की। यह मुझसे न सहा गया। इसीलिये क्रोध में मैंने चौपड़ के पासे फेंक मारे। क्यों, तुम उदास क्यों हो गये, बेटा?" पिता की बात सुनकर उत्तर कांप गया। उसके भय और चिंता की सीमा न रही। बोला- "पिता जी, आपने यह बड़ा अनर्थ कर डाला। अभी इनके पांव पकड़कर क्षमा याचना कीजिए। अपने किये पर पश्चात्ताप कीजिए, नहीं तो हमारे वंश का सर्वनाश हो जायेगा।" विराट कुछ समझ ही न सके कि बात क्या है। परंतु उत्तर ने फिर आग्रह किया तो उन्होंने कंक के पाव पकड़कर क्षमा याचना की। इसके बाद उत्तर को गले लगा लिया और बोले- "बेटा,बड़े वीर हो तुम। बताओ तो तुमने कौरवों की सेना को जीता कैसे? लाखों गायों को सेना से छुड़ाया कैसे? विस्तार से सब हाल सुनाओ। जो कुछ हुआ, शुरु से लेकर सब हाल बताओ।" उत्तर ने कहा- "पिता जी, मैंने कोई सेना नहीं हराई। मैं तो लड़ा भी नहीं। एक भी गाय नहीं लौटाई। यह सब किसी देवकुमार का कार्य था। उन्होंने कौरवों की सेना को तहस-नहस करके गायें लौटा दीं। मैं तो सिर्फ देखता रहा।" बड़ी उत्कंठा के साथ राजा ने पूछा- "कौन था वह वीर? कहाँ है वह? बुला लाओ उसे। उस वीर के दर्शन करके अपनी आंखें धन्य कर लूं जिसने मेरे पुत्र को मृत्यु के मुंह से बचाया। उस वीर को मैं अपनी पुत्री उत्तरा भेंट करुंगा। उसकी पूजा करुंगा। बुला लाओ उसे।" "पिता जी, वह देवकुमार अंतर्धान हो गये, लेकिन फिर भी मेरा विश्वास है कि आज या कल वह अवश्य प्रकट होंगे।" राजकुमार ने कहा। राजा विराट और राजकुमार उत्तर की विजय का उत्सव मनाने के लिये राजसभा हुई। नगर के सब प्रमुख लोग आकर अपने अपने आसनों पर बैठने लगे। कंक, वल्लभ, बृहन्नला, तंतिपाल, ग्रंथिक आदि राजा के पांचों सेवक सभा में आये तो सबकी दृष्टि उन पर पड़ी। जब ये पांचों राजकुमारों के लिये नियुक्त आसनों पर जा बैठे तो लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर भी उन्होंने यह सोच अपना समाधान कर लिया कि राजा की सेवा-टहल करने वाले नौकर होने पर भी समय-समय पर उन्होंने वीरता से राजा की जो सहायता की, उसके लिये राजा ने इनको यह गौरव प्रदान किया होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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