महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
44.अज्ञातवास
द्रौपदी हरिणी की भाँति भय-विह्वल होकर राजा की दुहाई मचाती राजसभा में पहुँची। इतने में कीचक भी उसका पीछा करता हुआ वहाँ जा पहुँचा। अपनी शक्ति और पद के मद में अन्धा होकर भरी सभा में उसने द्रौपदी को ठोकर मारकर गिरा दिया और अपशब्द भी कहे। सारे सभासद देखते रह गये। किसी की हिम्मत न पड़ी कि इस अन्याय का विरोध करें। मत्स्य देश के राजा तक को जिसने अपनी मुट्ठी में कर लिया था, ऐसे प्रभावशाली सेनापति के ख़िलाफ़ कुछ भी बोलने की किसी की हिम्मत न पड़ी। सबके सब मारे डर के चुप्पी साधे बैठे रहे। अपमानित द्रौपदी लज्जा और क्रोध के मारे आपे से बाहर हो गई। अपनी हीन और निस्सहाय अवस्था पर उसे बड़ा क्षोभ हुआ। उसका धीरज टूट गया। अपना परिचय संसार को मिल जाने से जो अनर्थ हो सकता था, उसकी भी परवाह न करके रातों रात वह भीमसेन के पास चली गई और भीमसने को सोते से जगाया। भीमसेन चौंककर उठ बैठा। आंसू बहाती और सिसकती हुई द्रौपदी उससे बोली- "भीम, मुझसे यह अपमान सहा नहीं जाता। नीच दुरात्मा कीचक का इसी घड़ी वध करना होगा। महारानी होकर मैं अगर विराट की रानियों के लिए चन्दन घिसने वाली दासी बनी तो वह तुम्हीं लोगों की प्रतिज्ञा बनाये रखने के लिए। तुम लोगों की खातिर ऐसे लोगों की सेवा चाकरी कर रही हूँ जो किसी भी प्रकार आदर के योग्य नहीं हैं। मैं हमेशा निर्भय रही हूं, यहाँ तक कि स्वयं कुन्ती देवी और तुमसे भी मैं कभी नहीं डरी; किन्तु आज यहाँ तक नौबत पहुँच गई कि रनिवास में हर घड़ी कांपती हुई सबकी सेवा-टहल करनी पड़ रही है। मेरे इन हाथों को तो देखो।" कहकर द्रौपदी ने भीमसेन को अपने हाथ दिखलाये। भीमसेन ने देखा कि चन्दन घिसने के कारण द्रौपदी के कोमल हाथों में छाले पड़े हुए हैं। आतुर होकर उसने द्रौपदी के हाथों को अपने मुख पर रखकर प्रेम से हाथ दिखलाये। भीमसेन ने देखा कि चन्दन घिसने के कारण द्रौपदी के कोमल हाथों में छाले पड़े हुए हैं। आतुर होकर उसने द्रौपदी के हाथों को अपने मुख पर रखकर प्रेम से दबा लिया। भीमसेन ने द्रौपदी के आंसू पोंछे और जोश में आकर बोला-"कल्याणी, अब मैं न तो युधिष्ठिर की आज्ञा का पालन करुंगा, न अर्जुन की सलाह पर ही ध्यान दूंगा। जो तुम कहोगी, वही करुंगा। इसी घड़ी जाकर कीचक और सारे भाई बन्धुओं का काम तमाम किये देता हूँ।" कहकर भीम फुर्ती से उठ खड़ा हुआ। भीम को इस प्रकार एकदम उठते देख द्रौपदी संभल गई। उसने भीससेन को सचेत करते हुए कहा कि उतावली में कोई काम कर डालना ठीक नहीं। तब कुछ देर तक दोनों सोचते रहे और अन्त में यह निश्चय किया कि कीचक को धोखे से राजा की नृत्यशाला के किसी एकान्त में रात को अकेले बुला लिया जाये और वहीं उसका काम तमाम किया जाये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज