महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
37.‘मैं बगुला नहीं हूं’
उन्हें कुछ समझ में नहीं आया। ब्राह्मण को यों भ्रम में पड़ा देखकर कसाई जल्दी से उठकर उनके पास आया और बड़ी नम्रता के साथ बोला- "भगवन! उस सती साध्वी स्त्री ने ही तो आपको मेरे पास नहीं भेजा है?" सुनकर कौशिक सन्न रह गये। "द्विजवर! मैं आपके यहाँ आने का उद्देश्य जानता हूँ। चलिये, घर पर पधारिए। आपकी इच्छा पूरी होगी।" यह कहकर धर्मव्याध ब्राह्मण को अपने घर ले गया। वहाँ पहुँचकर कौशिक ने धर्मव्याध को अपने माता पिता की बड़ी श्रद्धा के साथ सेवा टहल करते देखा। इससे निवृत होकर कसाई धर्मव्याध ने ब्राह्मण कौशिक को बताया कि जीवन क्या है, कर्म क्या है और मनुष्य के कर्तव्य क्या हैं। यह उपदेश पाकर कौशिक अपने घर लौट आये और धर्मव्याध के उपदेश के अनुसार अपने माता पिता की सेवा टहल में लग गये, जिनकी उपेक्षा करके वेदाध्ययन और तपस्या में लगे थे। धर्मव्याध की कथा गीता के उपदेश का ही एक दूसरा रुप है। कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसमें परमात्मा व्याप्त न हो। इसलिए कोई भी काम ऐसा नहीं जो ईश्वरीय न हो। समाज के प्रचलित ढांचे के कारण, या खास मौका मिलने या न मिलने के कारण, अथवा अपनी पहुँच या विशेष परिश्रम के कारण भिन्न-भिन्न मनुष्य भिन्न-भिन्न कामों में लग जाते हैं। इसमें ऊंच-नीच का या और किसी तरह का प्रश्न ही कहाँ उठ सकता है। किसी भी काम को, अपने धर्म से डिगे बगैर करना ही ईश्वर की भक्ति करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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