महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
34.विद्या और विनय
उन्होंने राजा से नम्रतापूर्वक कहा- "राजन, ब्रह्महत्या मैंने नहीं की है। मैं सच कहता हूँ। असल में ब्रह्महत्या तो मेरे भाई परावसु ने की। मैंने तो उनके निमित्त प्रायश्चित किया और उनका पाप दूर किया है।" लेकिन अर्वावसु की इस बात पर किसी ने भरोसा नहीं किया और उनका अपमान करके उन्हें यज्ञशाला से निकाल दिया। लोग भी अर्वावसु की निन्दा करने लगे। कहने लगे- "कैसा अंधेर है! एक तो ब्रह्महत्या की, उसका प्रायश्चित भी कर आये और दोष उल्टे भाई पर मढ़ने चले!" इस प्रकार अपमानित होकर और हत्यारा कहलाकर धर्मात्मा अर्वावसु कुंठित हृदय से यज्ञशाला से चुपचाप सीधे वन में चले गये और घोर तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवताओं ने प्रकट होकर पूछा- "धर्मात्मा! आपकी कामना क्या है?" यज्ञशाला से निकलते समय अर्वावसु के मन में भाई के व्यवहार के प्रति जो क्रोध था वह अब तप और साधन से शान्त हो चुका था। सो उन धर्मात्मा ने देवताओं से प्रार्थना की कि भाई परावसु का सब दोष धुल जाये और पिता रैभ्य फिर से जीवित हो उठें। देवताओं ने प्रसन्न होकर ‘तथास्तु‘ कहा। लोमश ऋषि ने युधिष्ठिर से कहा- "युधिष्ठिर, यही वह स्थान है जहाँ महान विद्वान रैभ्य का आश्रम था। पाण्डु के पुत्रों! गंगा के पवित्र जल में स्नान करके क्रोध से निवृत्त हो जाओ।" अर्वावसु और परावसु दोनों एक महान ऋषि के पुत्र थे। दोनों ने उनसे बड़ी विद्या पाई। लेकिन विद्या एक चीज है और विनय दूसरी चीज। यह ठीक है कि मनुष्य भलाई को ग्रहण करने और बुराई से दूर रहने के लिए भले और बुरे का भेद समझ ले; परन्तु यह ज्ञान मनुष्य के विचारों से इस तरह समाहित हो जाना चाहिए कि उसके कार्यो पर उसका प्रभाव पड़े। तभी विद्या विनय बनती है। ज्ञान, जो कि दिमाग से भरी गई बहुत सारी बातों की केवल जानकारी मात्र होता है, गुण की जगह नहीं ले सकता। यह तो केवल ऊपरी दिखावा भर होता है- जैसे शरीर के ऊपर पहने जाने वाले कपड़े। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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