महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
33.यवक्रीत की मृत्यु
भरद्वाज मुनि जब आश्रम में आये तो देखा कि यज्ञशाला तेजविहीन है। द्वार पर उनका पुत्र मरा पड़ा है। उन्होंने समझ लिया कि रैभ्य की अवहेलना करने के कारण ही यवक्रीत ने यह दण्ड पाया है। पुत्र को मरा देखकर उनसे न रहा गया। उन्हें रैभ्य मुनि पर बड़ा क्रोध आया। आखिर पिता जो ठहरे! शोक संतप्त होकर विलाप करने लगे- "अरे बेटा, यह क्या कर लिया तुमने? क्या अपने घमण्ड की ही बलि चढ़ गये? अरे, यह कोई भारी पाप था जो तुमने सब वेद सीख लिए। फिर इसके लिए तुम्हें क्यों शाप दिया गया? रैभ्य ने मेरे इकलौते बेटे को मुझसे निर्दयता से छीन लिया है। तो मैं फिर क्यों चुप रहूँ? मैं भी शाप देता हूँ कि रैभ्य भी अपने ही बेटे के हाथों किसी दिन मारा जायेगा!" पुत्रशोक और क्रोध के कारण भरद्वाज बिना सोचे-समझे और जांच पड़ताल किये अपने मित्र को इस प्रकार शाप दे बैठे। पर जब उनका क्रोध शांत हुआ तो उनको बड़ा पछतावा हुआ। कहने लगे– "हाय, मैंने यह क्या कर डाला? जिसके कोई सन्तान न हो, वही बड़ा भाग्यवान है। फिर एक तो मेरा बेटा मुझसे बिछुड़ा और ऊपर से अपने प्रिय मित्र को भी शाप देकर मैंने उसका अहित किया। इससे तो मेरा जीना भी बेकार है।" यह निश्चय करके भरद्वाज मुनि ने अपने पुत्र का दाह-संस्कार किया और उसी आग में आप भी कूद पड़े और प्राण त्याग दिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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