महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
33.यवक्रीत की मृत्यु
वसन्त की सुहावनी ऋतु थी। पेड़-पौधे और लताएं रंग-बिरंगे फूलों से लदी थीं। सारा वन प्रदेश सौंदर्य से अभिभूत था। संसार भर में कामदेव का राज हो रहा था। रैभ्य मुनि के आश्रम की फुलवारी में परावसु की पत्नी घूम रही थी! पवित्रता, सौंदर्य एवं धैर्य की पुतली वह तरुणी, किन्नर-कन्या-सी प्रतीत हो रही थी। इतने में दैवयोग से यवक्रीत उधर से आ निकला। परावसु की पत्नी पर उसकी नजर पड़ी। देखकर वह मुग्ध हो गया। उसके मन में कुवासना जग उठी। वासना से यवक्रीत का मस्तिष्क फिर गया। उसने परावसु की पत्नी को पुकारा- "सुन्दरी! इधर तो आओ।" ऋषि-पत्नी उसकी भावभंगी और बातों से लज्जित और आश्चर्य चकित रह गई, परन्तु फिर भी यवक्रीत शाप न दे बैठे, इस भय से उसके पास चली गई। यवक्रीत की बुद्धि तो ठिकाने थी नहीं, काम-वश होकर वह अपने पर से अधिकार खो बैठा था। उसने ऋषि पत्नी को अकेले में ले जाकर उसके साथ दुराचार किया। रैभ्य मुनि जब आश्रम लौटे तो अपनी बहू को बहुत दु:खी और रोते हुए देखा। पूछने पर उन्हें यवक्रीत के कुत्सित व्यवहार का पता लगा। यह जानकर उनके क्रोध की सीमा न रही। वह आपे से बाहर हो गये। गुस्से में अपने सिर का एक बाल तोड़कर उसे अभिमंत्रित करके होमाग्नि में डाला। वेदी से एक ऐसी कन्या निकली जो ऋषि की बहू के समान सुन्दरी थी। मुनि ने एक और बाल चुनकर अग्नि में डाला तो एक भीषण रूप वाला दैत्य निकल आया। दोनों को रैभ्य ने आज्ञा दी कि जाकर यवक्रीत का वध करें। दोनों पिशाच ‘जो आज्ञा’ कहकर वहाँ से रवाना हो गये। यवक्रीत प्रात: कर्म से निवृत्त हो रहा था। इतने में रूपवती डाइन ने उसके साथ खिलवाड़ करके उसका मन मोह लिया और चुपके से उसका कमण्डलु लेकर खिसक गई। इसी समय पिशाच भाला तानकर ऋषिकुमार पर झपटा। यवक्रीत हड़बड़ा कर उठा। उस अवस्था में वह शाप भी नहीं दे सकता था। उसने पानी के लिए कमण्डल की तरफ देखा तो वह नदारद था। बड़ा घबराया और पानी की तलाश में तालाब की ओर भागा। तालाब भी सूखा पड़ा था। पास वाले झरने की ओर भागा तो उसमें पानी नहीं था। जिस किसी भी जलाशय के पास गया उसे सूखा पाया। पिशाच भीषण रूप से उसका पीछा कर रहा था और डर के मारे यवक्रीत भागा-भागा फिर रहा था। उसका तपोबल तो नष्ट हो ही चुका था। कोई चारा न पाकर आखिर उसने अपने पिता की यज्ञशाला के अन्दर घुसने की कोशिश की। यज्ञशाला के द्वार पर जो द्वारपाल खड़ा था वह काना था। यवक्रीत भय के मारे चिल्लाता हुआ भागा आ रहा था। द्वारपाल उसे पहचान न सका और उसे रोक दिया। इतने में ही पिशाच पास पहुँच गया और यवक्रीत पर भाला तानकर मारा। यवक्रीत वहीं ढेर होकर गिर पडा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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