महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
28.पाशुपत
अर्जुन को भला इससे अच्छा क्या लगता? वह उछल पड़ा और उसने व्याधारूपधारी शिव जी पर नागास्त्र चला दिया, किन्तु क्या देखता है कि उन बाणों का व्याध पर कोई असर ही नहीं हो रहा है। इस पर अर्जुन ने बाणों की और भी वर्षा की। पर व्याघ्र के शरीर पर उनका उतना सा ही प्रभाव हुआ जितना वर्षा की धारा का पहाड़ पर होता है। व्याध के मुख पर प्रसन्नता की झलक थी, यहाँ तक कि अर्जुन के तूणीर के सारे बाण समाप्त हो गये। अब अर्जुन का मन शंकित हो गया। वह कुछ घबरा-सा गया। फिर भी संभलकर उसने धनुष की नोक व्याध के शरीर में भोंकने की कोशिश की। व्याध इस पर भी विचलित न हुआ; हंसते-हंसते उसने अर्जुन के हाथ से धनुष छीन लिया। अजेय वीर अर्जुन एक जंगली व्याध के हाथों इस प्रकार परास्त हो रहा, परन्तु उसने फिर भी हार मानी नहीं। वह तलवार खींचकर व्याध पर टूट पड़ा और व्याध के सिर पर जोर का वार किया! किन्तु आश्चर्य! तलवार के ही दो टुकड़े हो गये और व्याध अचल खड़ा रहा। तब अर्जुन ने पत्थरों की बौछार करनी शुरू की। उससे भी काम न चला तो मुट्ठी बांधकर घूंसे मारना शुरू किया पर उसमें भी अर्जुन को हार खानी पड़ी।
अर्जुन की प्रसन्नता की सीमा न रही। महादेव के दिव्य स्पर्श के कारण उसके शरीर के सारे दोष दूर हो गये। उसकी शक्ति एवं कांति अनंत गुना बढ़ गई। महादेव ने अर्जुन से कहा- "तुम अब देवलोक जाओ और देवराज इन्द्र से भी मिल आओ।" यह कहकर महादेव अन्तर्धान हो गये, उसी प्रकार जैसे सूरज अपनी सुनहरी ज्योति समेटकर अस्त हो जाता है। पर अर्जुन को कुछ चेत नहीं था। वह खड़ा-खड़ा यही सोचता रहा- "क्या देवाधिदेव महादेव के मुझे प्रत्यक्ष दर्शन हुए थे। उनके दिव्य स्पर्श का मुझे सद्-भाग्य मिला? मुझे दिव्यास्त्र प्राप्त हो गये? मैं कृतार्थ हो गया।" इस प्रकार खोया-सा अर्जुन खड़ा रहा। इसी बीच इन्द्र के सारथी मातलि ने उसके सामने देवराज का रथ लाकर खड़ा कर दिया और अर्जुन उस पर आरूढ़ होकर इन्द्रलोक को चल दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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