महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
वनगमन
इन्द्र बोले- "चित्रसेन! मैं भूत, भविष्य और वर्तमान, तीनों ही बातों का अच्छी तरह से विचार करके ही कोई काम करता हूँ। अगर उर्वशी अर्जुन की कोई बुराई करेगी तो मैं उसे संभाल लूंगा।" चित्रसेन और इन्द्र देव दोनों की बातें सच सिद्ध हुई, उर्वशी एक दिन अर्जुन से गिड़गिड़ा कर बोली- "हे अर्जुन! मैं तुम्हारी इतनी सेवा करती हूँ। तुमको खुश करने के लिए सदा उपाय किया करती हूँ फिर भी तुम मुझसे रूठे हो। यह अच्छी बात नहीं है।" अर्जुन बोला- "मैं आपका बड़ा उपकार मानता हूँ। आपने मुझे बहला बहलाकर नृत्य कला सिखला दी, इसके लिए भी मैं आपका उपकार मानता हूँ। इसके बाद भी आप कहती हैं कि मैं आपसे रूठा हुआ हूँ। मेरी समझ में नहीं आता है कि आप ऐसी बात क्यों कहती हैं?" उर्वशी बोली- "हे अर्जुन, मैं तुमसे प्रेम करती हूं, अतः मैं चाहती हूँ कि तुम मुझसे प्रेम करो।" अर्जुन- "मैं आपसे उसी तरह प्रेम करता हूं, जैसे बच्चा अपनी मां को चाहता है।" उर्वशी नाराज हो गई, कहने लगी- "मैं क्या बूढ़ी हो गई हूँ जो तुम अपनी मां कहते हो?" अर्जुन ने शांत भाव से उत्तर दिया- "आप देवराज की प्रिय अप्सरा हैं और मैं उन्हें पिता के समान मानता हूँ।" उर्वशी- "अप्सरा किसी की पत्नी नहीं होती अर्जुन, वह सदा मुक्त रहती है। तुम इस बात की तनिक भी चिन्ता न करो कि मैं देवराज की नौकर हूं, तुम निर्भय होकर मुझसे प्रेम करो।" अर्जुन बोला- "मैं क्षत्रिय का बेटा हूं, मैने अपने गुरुजनों से उत्तम शिक्षा पाई है। मैं, आपको केवल उसी दृष्टि से देख सकता हूँ जिस दृष्टि से मैं देवि कुन्ती, माद्री और इंद्राणी को देखता हूँ। आप इस सम्बन्ध में कृपा करके अब और कुछ न कहें। मुझे पुत्र की तरह अपनी रक्षा प्रदान करें।" अर्जुन के यह वचन सुनकर उर्वशी क्रोध के मारे लाल हो उठी। उसका सन्दर शरीर गुस्से की बेबसी में कांपने लगा। फिर एकाएक जाने क्या सोचकर वह शांत हो गई। उसके चेहरे से क्रोध की रेखायें मिट गईं और होठों पर मुस्कराहट आ गई। वह बोली- "अच्छा भूलो इस बात को आओ, थोड़ी देर बैठकर हंसे, बोले, ठहरो मैं तुम्हारे लिये कुछ खाने-पीने का सामान ले आऊं।" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज