महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
वनगमन
देवराज इन्द्र ने उर्वशी के मन का भेद भांप लिया। वे भविष्य द्रष्टा थे, आगे आने वाली बातों को जानते थे। इसीलिए उनकी बड़ी इच्छा थी कि अर्जुन नृत्य कला सीख लें। उन्होंने चित्रसेन से कहा- "चित्रसेन, तुम जानते हो कि मैं अर्जुन को अपने बेटे की तरह से मानता हूँ। यह बड़ा वीर और बुद्धिमान है। भाग्य के फेर से इसे तथा इसके भाइयों को इस समय कष्ट झेलने पड़ रहे हैं और आगे भी इनके भाग्य में कुछ गम्भीर संकट बदे हैं। उन्हीं संकट के क्षणों को कुछ हल्का करने के लिए मैं चाहता था कि यह नृत्यकला सीख लें। यह लड़का तुम्हारे साथ रहकर नृत्यशास्त्र का अच्छा जानकार अवश्य हो गया है, परन्तु नृत्य कला का अभ्यास करने से यह जी चुराता है।" बूढ़ा चित्रसेन बोला- "अरे महाराज! जो पैदा होता है, उस पर दुख-सुख तो पड़ा ही करते हैं; पर खून का असर भला थोड़े ही जा सकता है। अर्जुन महाबली है, पुराने और प्रतापी राजवंश के रत्न हैं, यह हम गन्धर्वों के बेटे-बेटियों की तरह नृत्यकला का अभ्यास करने में वैसा रस कभी नहीं ले सकते, जैसाकि आप चाहते हैं।" देवराज इन्द्र बड़े गम्भीर होकर दृढ़ स्वर में बोले- "चित्रसेन मैं चाहता हूँ कि यह लड़का जैसा अपनी धर्नुविद्या के सम्बन्ध में प्रख्यात है, वैसा ही प्रख्यात नर्तक भी माना जाय। यदि एक नाम से यह महावीर जाना जाता है तो दूसरे नाम से यह महान नर्तक भी माना जाय। मेरा विश्वास है कि जो काम तुम पुरुष होने के कारण नहीं कर सके, वह उर्वशी आसानी से पूर्ण कर लेगी। मैंने अक्सर देखा है कि उर्वशी अर्जुन की बहुत बड़ी समर्थक है। तुम उर्वशी और अर्जुन की दोस्ती करवा दो।" चित्रसेन बोला- "महाराज! आपकी अप्सरायें भी अर्जुन को मुझसे अधिक नहीं सिखा पायेंगी। क्योंकि महाबली अर्जुन बड़े ही संस्कारी पुरुष है। यह अप्सरायें चूंकि आपकी चाकरी में हैं, इसलिए अर्जुन इन सबमें छोटी से छोटी अप्सरा तक से बड़े ही आदर से बातें करते हैं।" इन्द्र बोले- "अरे तुम उर्वशी से इसकी जान-पहचान जरा करा तो दो। उर्वशी बड़ी चालाक औरत है। वह निश्चय ही अर्जुन का मन जीत लेगी।" गन्धर्वाचार्य चित्रसेन देवराज के बड़े मुंह लगे थे, कहने लगे कि वह चालाक औरत है। इसीलिए तो मैं डरता हूँ। महाराज, अगर अर्जुन ने उसकी इच्छा पूरी न की, तो वह अपना बदला लिए बिना मान नहीं सकती। यह आप अच्छी तरह से जानते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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