महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
न्यायप्रिय राजा शांतनु ने इस तरह अपने लायक बेटे का हक तो न छीना, पर वे दिन-रात दुखी रहने लगे। राजा को दुखी देखकर सारे मंत्री, सेनापति और नौकर-चाकर भी दुखी रहा करते थे। होते-करते गंगादत्त को अपने पिता के दुख का कारण एक मंत्री से मालूम हुआ। सुनते ही युवराज ने कहा - "पिता के सुख के लिए अपने प्राणों का त्याग करना भी मेरे लिए बड़ी सरल-सी बात है, फिर राजपाट छोड़ने में भला मुझे क्या लगेगा?" यह कहकर वे मछुये के पास गये और कहा कि अपनी बेटी का ब्याह आप मेरे पूज्य पिता जी से कर दीजिए। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि हस्तिनापुर की राजगद्दी पर कभी नहीं बैठूंगा। मछुवा बोला - "युवराज आप धन्य हैं, मगर मेरी चिन्ता अब भी मिट नहीं पाई है। आप तो राजगद्दी छोड़ देंगे, पर आपके बाल-बच्चे जलन के मारे मेरी बेटी की सन्तानों से अवश्य ही लड़ाई-झगड़ा करेंगे। इसलिये यह सम्बन्ध करके मैं आने वाली पीढ़ियों को कष्ट नहीं देना चाहता।" गंगादत्त यह सुनकर एक पल तो खड़े-खड़े सोचते रहे, पर तुरन्त ही उन्होंने कहा - "अपने पिता को सुखी देखने के लिए मैं बड़े से बड़ा त्याग भी कर सकता हूँ। देवताओं को साक्षी देकर मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजन्म कुंवारा और ब्रह्मचारी रहूंगा। तुम्हारी बेटी से उत्पन्न होने वाले अपने छोटे भाइयों की रक्षा करूंगा और जब तक जीऊंगा तब तक उन्हें और उनकी सन्तानों को अपने प्राणों से अधिक प्यार करूंगा।" गंगादत्त की यह प्रतिज्ञा सुनकर चारों ओर जय-जयकार होने लगी। ऐसी अति कठिन प्रतिज्ञा करने के कारण ही उनको लोग भीष्म कहने लगे। और इस प्रकार सत्यवती तथा महाराज शांतनु का विवाह सम्भव हो गया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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