महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
राजसूय यज्ञ
राजा जरासंध यह सुनकर चौंक गये। फिर कहा कि मैं आपकी दोनों ही मांगें स्वीकार नहीं कर सकता। मैं नहीं चाहता कि कोई तपस्वी ब्राह्मण मेरे हाथों से मारा जाय। भीम बोले- "जब मैंने न्याय की बात कही, तब ब्राह्मण की तरह से सोच रहा था और जब मैंने अन्याय को चुनौती देने की बात कही, तब वह क्षत्रिय धर्म के अनुसार था। हर मनुष्य को दिन भर अवसर के अनुकूल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों ही प्रकार के विवेक से काम लेना चाहिए। मेरी चुनौती आप को स्वीकार करनी ही होगी। दोनों में से एक न एक तो मारा ही जायगा। भगवान यदि यह चाहते हैं कि आपका अत्याचार अभी और बढ़े तो मैं मारा जाऊंगा। परन्तु भगवान को यदि हजारों दीन दुखियों की करुण पुकार के कारण आपको समाप्त करना होगा तो मेरे हाथों से आप मारे जायेंगे। युद्ध में तो यह सब होता ही है तो चिन्ता क्यों?" युद्ध की चुनौती को कोई भी क्षत्रिय भले ही वह असुर या राक्षस भी क्यों न हो कभी अस्वीकार नही कर सकता। जरासंध को भीम की बात माननी ही पड़ी। दंगल के लिए दूसरे दिन सबेरे का समय चुना। नियत समय पर भीम, अर्जुन और श्रीकृष्ण अखाड़े में पहुँच गए। जरासंध भी अपने पुरोहित से तिलक कराकर ताल ठोंकता हुआ आया। और दोनों में कुश्ती होने लगी कुश्ती रात दिन चौदह दिनों तक चलती रही। चौदहवें दिन की रात थी। जरासंध अपनी पकड़ में अब कुछ-कुछ थका हुआ लग रहा था। चतुर श्रीकृष्ण ने जो स्वयं भी अच्छे पहलवान थे, तुरन्तु मौका ताड़कर भीम को ललकार कर बात ही बात में बड़ी सफाई से एक संकेत दिया। भीम कृष्ण की बात ले उड़े। उन्होंने जरासंध को सांस लेने का अवसर न देकर एक ऐसा दांव मारा कि वह पत्थर की चट्टान के समान धमाक से अखाड़े में गिरा। गिरते ही भीम ने पूरी शक्ति के साथ जरासंध को इतना रगड़ा कि उसकी जान ही निकल गई। पाण्डवों की सेना भी चुपचाप मगध की सीमा पर पहुँच गई थी। जरासंध के मरने का समाचार पाते ही पाण्डव सेना ने ऐसे झपाटे के साथ मगध में प्रवेश किया कि जरासंध की घबराई हुई सेना ने आतंकित होकर आत्मसमर्पण कर दिया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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