महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
राजसूय यज्ञ
नारद जी गम्भीर होकर बोले- "हे धर्मराज! सुना जाता है कि राजसूय यज्ञ में बड़े-बड़े विघ्न आते हैं। जब कोई राजसूय करता है तो क्षत्रियों में मारकाट मचती है। युद्धों से पृथ्वी मण्डल की बहुत सी वस्तुयें उजड़ जाती हैं। इसलिए हमारा विचार तो यह है कि तुम अभी और सोच लो, फिर करना। राजा युधिष्ठिर को नारद जी का यह उत्तर टाल-मटोल भरा लगा। उसके मन में यह यज्ञ करने की लगन लग गई थी, अतः उन्होंने मंत्रियों से पूछ-ताछ की। एक योग्य और बूढ़े मंत्री ने कहा कि आप किसी और से सलाह न लें, सीधे अपने ममेरे भाई श्रीकृष्ण से जाकर पूछें। राजा युधिष्ठिर को इतनी उतावली थी कि उन्होंने उसी दिन अपना दूत द्वारकापुरी के लिए रवाना कर दिया। दूत श्रीकृष्ण को इन्द्रप्रस्थ लिवा लाने का आदेश लेकर गया था। श्रीकृष्णचन्द्र बड़े ही सुलझे हुए और शिष्टाचार कुशल पुरुष थे। बड़े भाई युधिष्ठिर के संदेश में जैसी उतावली देखी वैसी ही फुर्ती उन्होंने द्वारका से इन्द्रप्रस्थ की ओर रवाना होने में दिखलाई अपने राजपाट का काम उचित पदाधिकारियों को सौंपा और वायु के समान वेग वाले रथ पर बैठ कर वे युधिष्ठिर की सेवा में चल दिए। जब इन्द्रप्रस्थ पहुँचे तो नगर के द्वार पर ही धर्मराज युधिष्ठिर और महाबली भीम ने अपने छोटे भाई का स्वागत किया। शानदार स्वागत सत्कार और सबसे मिलने-जुलने और आराम कर चुकने के बाद युधिष्ठिर ने एकान्त में श्रीकृष्ण से कहा- "श्रीकृष्ण! मैं राजसूय यज्ञ करना चाहता हूं, लेकिन चाहने से ही तो कोई काम हो नहीं जाता। राजसूय यज्ञ वहीं कर सकता है जो पृथ्वी मण्डल का चक्रवर्ती राजा हो। मैं क्या करूं, क्या न करूं? तुम्हीं मुझे उचित सलाह दे सकते हो। श्रीकृष्ण सुनकर गम्भीर हो गए। ध्यान एकाग्र करते ही उनकी पैनी दृष्टि को एक उपाय सूझ ही गया। मुस्कराकर बोले- "हे पूज्य भाई! कहावत है कि सुनार की सौ ठक ठक से लुहार की एक घन चोट अधिक प्रभावशाली होती है। आप जगह-जगह पर राजसूय का घोड़ा फिरावेंगे, लड़ाइयां-भिड़ाइयां होंगी, व्यर्थ में बहुत से लोग मारे जायेंगे और आपको राजसूय यज्ञ करने में बहुत समय भी लग जायगा। इसलिए मैं एक ऐसा उपाय बतलाता हूँ कि एक ही शत्रु को पराजित करके आप बिल्कुल चमत्कार की तरह सर्वश्रेष्ठ शक्तिशाली राजा मान लिए जायेंगे।" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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