महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
अर्जुन का वनवास
अस्तु, अर्जुन के समय में मायावती का क्षेत्र ऐरावत वंश के नागों के अधिकार में था। यह मय भी नाग जाति की एक शाखा थी। इस जाति के पास चूंकि पैसा बहुत अधिक हो गया था, इसलिए विलासिता भी बढ़ गई थी। राजकुमारी उलूपी अपने राजघाट पर नहा रही थी। वह तैरने में बड़ी कुशल थी। तैरते-तैरते वह पत्थर की उस दीवार से आगे निकल गई जो राजघाट से जनता का परदा रखने के लिए बनी थी। उलूपी ने देखा कि ऋषियों के घाट पर एक बड़ा ही बलिष्ठ और सुन्दर जवान नहा रहा है। वह उसे अच्छा लगा। उसने उसे कई बार देखा। नौजवानी की उमंग थी। तैरने का हुनर आता था। वह पानी के भीतर-ही-भीतर तैरती हुई वहाँ पहुँची जहाँ पाण्डव अर्जुन पानी में खड़े हुए अपनी देह मल रहे थे। उलूपी ने ऐसे झटके से उनकी टांग खींची कि महाबली के पैर पानी में उखड़ गये। एक हाथ से उन्हें खींचती हुई और दूसरे से तैरती हुई वह राजघाट आ गई। और फिर तो दास-दासियां थीं, सब कुछ अपना था। हाथों हाथ अर्जुन को पानी से निकालकर खड़ा किया गया। अर्जुन का चेहरा क्रोध से लाल हो रहा था। राजकुमारी उलूपी खट से उनके पैरों पर गिर पड़ी और कहा- "आपको देखकर मैं अपना मन बस में न रख सकी। आपको यहाँ लाने का यही उपाय मुझे सूझा और मैं ले आई। मैंने अपनी इच्छा पूरी कर ली। अब आपको जी चाहे तो अपनी इस दासी को मार कर अपना बदला ले लें।" यह मीठे वचन और राजकुमारी का सुन्दर सलोना रूप देखकर अर्जुन का क्रोध शांत हुआ। उलूपी ने बतलाया कि मेरे पिता का नाम कौरव्य नाग है। हम लोग यज्ञ की अग्नि के उपासक है। अर्जुन ने सब तरह से सोच समझकर उलूपी को अपना परिचय दिया और कहा कि मैं बारह वर्ष तक वनवास में रहूंगा। तुम मेरे साथ कहाँ डोलोगी और मैं तुम्हारे नगर में रह नहीं सकता, क्योंकि मेरा प्रण टूट जायगा। फिर भला मैं तुमसे विवाह क्यों करूं। मुझसे विवाह करके तुमको भला क्या सुख मिलेगा।" नाग कन्या उलूपी बोली- "वैसे तो हम नागों में विवाह के नियम कठोर नहीं हैं, पर मैं संस्कार से आर्य नियमों को मानती हूँ। मैंने अपने जीवन में पहली बार जिस पुरुष के चरण पकड़े हैं अब मैं उन्हीं की चरणदासी हो चुकी। आप पण्डित बुलाकर मुझसे अपने सात फेरे न फिरवायें, तब भी अपने मन से मैं आपकी पत्नी हो चुकी।" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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