महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
अश्वमेध यज्ञ
युधिष्ठिर विनयपूर्वक बोले- “एक सबसे बड़ी कठिनाई हमारे सामने धन की भी है। राजकोष ख़ाली पड़ा है। इतने बड़े साम्राज्य का काम आखिर यों तो चल नहीं सकता दादा जी।” व्यास जी बोले- “हे पुत्र, ऐसे समय में चतुर लोग अश्वमेध यज्ञ किया करते हैं। मैं तुम्हें एक सुझाव देता हूँ। मुन्जवान पर्वत पर राजा मरुत ने एक बार अश्वमेध यज्ञ करने के लिए ही सोने का बड़ा भण्डार जमा किया था। फिर कारणवश वह यज्ञ न हो सका। राजा मरुत मारा गया और वह खजाना ज्यों का त्यों छिपा पड़ा है। मुझे वह ठिकाना मालूम है। तुम भीम को भेज कर वह खजाना मंगवा लो और अश्वमेध यज्ञ आरम्भ करो। फिर अश्वमेध का घोड़ा लेकर तुम्हारे प्रतापी भाई अर्जुन जब देश-विदेश की यात्रा पर सेना लेकर निकलें तो लक्ष्मी आप ही आप बरसने लगेंगी।“ व्यास देव का प्रस्ताव सुनकर भीम, अर्जुन आदि सब भाइयों को बड़ा उत्साह आया किन्तु युधिष्ठिर उत्फुल्ल न हो सके। वे बोले- “अश्वमेध होगा, न्याय के साम्राज्य का संगठन होगा, कर्म की महिमा बढ़ेगी। ये सब बातें एकदम ठीक हैं लेकिन कर्म करने वाला जो मनुष्य है उसके मन में कुछ न कुछ सहज हौंसला तो होना ही चाहिए। यहाँ हम सब के आगे सूनापन है। बहु इतनी शोकाकुल है कि किसी समझाने-बुझाने से मान ही नहीं पाती। ऐसी दशा में उसके गर्भ का जीव सुरक्षित भी रह सकेगा या नहीं, सबसे बड़ी चिन्ता तो मुझे यही है।” महर्षि व्यास देव ध्यान-मग्न हो गये। फिर कहा- “हे युधिष्ठिर, रनिवास में यह सूचना भेजो मैं उत्तरा से मिलने के लिए आ रहा हूँ।” तुरंत ही इन्तज़ाम हुआ। रनिवास में हलचल मच गयी कि महर्षि उत्तरा को समझाने के लिए महल में पधार रहे हैं। महर्षि पधारे, उन्होंने उत्तरा को समझाया। बोले- “अरी पगली, पुत्र के रूप में पति ही फिर पत्नी के पास लौट कर आता है। क्या तू स्वर्गीय अभिमन्यु से इतनी घृणा करती थी कि उसे अब अपने पास नहीं आने देना चाहती।” सुनकर उत्तरा तड़प उठी। वह फूट-फूट कर रोने लगी। महर्षि व्यास ने बड़ी सावधानी से उसका मन पकड़ कर अपने शब्दों से बांध दिया। उत्तरा की समझ में अब यह आ गया कि उसे अपने लिये नहीं बल्कि होने वाले बच्चे के लिये जीना है जो कि उसके स्वर्गीय पति का प्रतिरूप होगा। वह उसके बाद से ठीक तरह से खाने-पीने लगी और ठीक समय पर उसने एक पुत्र को जन्म भी दिया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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