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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
युधिष्ठिर और अर्जुन की मंत्रणा
अर्जुन को लहू-लुहान देखकर युधिष्ठिर ने समझा कि वह कर्ण को मार कर उन्हें खुशखबरी सुनाने को आया है लेकिन जब उन्हें दूसरी बात मालूम हुई तो अपनी पीड़ा के कारण धर्मराज मन का संतुलन खो बैठे। उन्होंने झिड़क कर कहा कि “दुष्ट कर्ण हमारी सेनाओं का मनोबल तोड़ रहा है और तुम उससे लड़ना छोड़कर मुझे देखने के बहाने से यहाँ भाग आये हो? तुम कायर हो अर्जुन, तुम्हें अब गाण्डीव त्याग कर देना चाहिए।" गाण्डीव त्याग की बात सुनकर अर्जुन का चेहरा एकाएक लाल हो गया। उनका हाथ अपनी कमर की मूठ पर जा पहुँचा। वह बोले- “मेरी यह प्रतिज्ञा है कि गाण्डीव का अपमान करने वाले का सिर कभी उसके धड़ पर नहीं रहने दूंगा।” श्रीकृष्ण ने तुरन्त ही अर्जुन का हाथ पकड़ लिया और बोले- “यह क्या करते हो सखा? बड़े भाई की डांट-फटकार में तुम्हारी प्रतिज्ञा वाली बात भला लगती ही कहाँ है। अरे, ये बेचारे तो अपनी झुंझलाहट में कह रहे हैं और तुम एकाएक लाल पीले हो गये।” फिर धर्मराज युधिष्ठिर की ओर देखकर उन्होंने कहा- “इस समय यहाँ लाने का मैं दोषी हूं, धर्मराज! मैं चाहता था कि घोड़े तनिक ताजे हो लें और अर्जुन के घावों पर औषधि लग जाय। तब यह कर्ण से रण लड़े। आप तनिक भी न घबरायें युधिष्ठिर भैया, यदि कर्ण ने आपको तथा आपकी सेनाओं को सताया है तो अर्जुन भी अभी-अभी अश्वत्थामा और उसकी सेनाओं को ऐसा छका कर आ रहे हैं कि इस समय तक भी उन लोगों को अपनी छठी का दूध याद आ रहा होगा। अब यहाँ से जाते ही अर्जुन फिर प्रलय मचाना आरम्भ कर देंगे। भीम भइया इस समय भी रण-क्षेत्र में भयंकर ताण्डव मचा रहे हैं घबराहट की कोई बात नहीं है।" युधिष्ठिर और अर्जुन का क्रोध शांत करके कृष्ण ने वैद्यों से कहा कि वे अर्जुन तथा स्वयं उनके शरीर पर लगे हुए घावों का उपचार करें। इससे अर्जुन के भीतर फिर नई शक्ति आ गयी और वे युद्ध-क्षेत्र में आने के लिए मचलने लगे। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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