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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
अर्जुन सुभद्रा मिलन
द्रोणाचार्य खीझ उठे, बोले, “दुर्योधन, तुम लोग जब होता है तब मुझ पर ही ताने कसते हो। यह क्यों नहीं देखते कि अर्जुन स्वयं ही मुझसे जान कर लड़ने में बराबर कतराता है। मैं आखिर कहां-कहां तक उसका पीछा करूं? तुम लोग क्या मिट्टी के पुतले हो जो उसका सामना नहीं कर पाते?” दुर्योधन झुंझलाकर बोला- “राजा श्रुतायु और उनके सारे भाई बन्धु मारे गये। कम्बोजो (कम्बोहों) की सेना अब तक पूरी तौर से उजड़ चुकी है। अर्जुन के तीरों की मार से बौखलाकर हमारे हाथी घबराहट में हमारे ही सिपाहियों को कुचल रहे हैं। श्रीकृष्ण इतनी कुशलता से अर्जुन का रथ हांक रहे हैं कि कोसों तक फैली हुई हमारी सेना में हर तरफ यही भय समा गया है कि जाने कब किस पर अर्जुन का प्रचण्ड आक्रमण हो जाय सभी अर्जुन से लड़ने में घबरा रहे हैं। मैं क्या करूं?” द्रोणाचार्य बोले- “मैं तुम्हें एक दुर्भेद्य कवच पहनाये देता हूँ। जाओ स्वयं ही उस महारथी का सामना करके देख लो।” कवच पहन कर दुर्योधन भी अर्जुन से लड़ने पहुँचा, लेकिन अपने बेटे के मारे जाने से शोक-संतप्त होकर बदला लेने के वास्ते अर्जुन उस दिन ऐसा प्रचण्ड युद्ध कर रहा था कि उसके सामने किसी के पैर ही नहीं जम पाते थे। चारों ओर आतंक मच जाने के बाद श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा - “सखा, अब थोड़ी देर के वास्ते हमें अपने घोड़ों को विश्राम देना चाहिए। तुमने युद्ध के शकट-व्यूह को काफी नुकसान पहुँचा दिया है। भीम, घटोत्कच, सात्यकि आदि हमारे योद्धा इस समय ऐसी उठा-पटक मचा रहे हैं कि कौरव सेनायें उनसे पार नहीं पा सकतीं। आओ थोड़ी देर अपने रथ के घोड़ों को विश्राम दे लें और स्वयं भी ताजे हो लें। इसी बीच में हम लोग जयद्रथ को मारने की तरकीब पर भी विचार कर लें। तुम्हारी प्रतिज्ञा भंग कराने के वास्ते कौरव लोग सूर्यास्त तक जयद्रथ को बचाने के लिए कोई कसर उठा न छोड़ेंगे।” यह कहकर श्रीकृष्ण अर्जुन का रथ ऐसी कुशलता से युद्ध-क्षेत्र के बाहर एक तालाब के पास ले गये कि शत्रु सेना में किसी को अर्जुन के युद्ध-क्षेत्र से बाहर जाने के सम्बन्ध में कुछ पता ही न चल पाया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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