महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
शिक्षा का प्रबन्ध
द्रोणाचार्य अपनी धर्नुविद्या के लिए आस-पास के राजे-रजवाड़ों में प्रसिद्ध तो अवश्य हो चुके थे, पर किसी ने उनकी ओर अब तक ध्यान नहीं दिया था। उसका कारण यह था कि द्रोण जी बड़े ही स्वाभिमानी ब्राह्मण थे। परन्तु इसका नतीजा यह हुआ कि उनके दिन बड़े ही तंगी से कटने लगे। पैसे वाला या सरकारी दरबारी आदमी सदा तिकड़मी और खुशामद से आगे बढ़ने वालों को ही महत्त्व देता है। गुण को सराहने वाले बहुत कम लोग हुआ करते हैं। इसलिए द्रोणाचार्य के परिवार को बड़े कष्ट सहने पड़े। एक बार द्रोणाचार्य का बेटा अश्वत्थामा गली में अपने समान आयु के बच्चों के साथ खेल रहा था। बात इस पर चल पड़ी कि कौन-कौन बच्चे दूध पीते हैं। सबमें एक बेचारा अश्वत्थामा ही ऐसा निकला जिसने दूध की शक्ल ही नहीं देखी थी। उसने घर आकर अपनी मां से हठ किया कि तुमने अब तक मुझे दूध क्यों नहीं पिलाया, मैं आज दूध पिऊंगा। घर में न गाय न पैसे, जब नादान बेटा बहुत हठ करने लगा तो माता ने छिपाकर आटा घोला और कटोरे में भरकर ले आई कि बेटा पी ले। दूसरे दिन उसने अपने संगी-साथियों के बीच में दूध पीने की बात कही तो संगी-साथी हंस पड़े। सबने उसका मजाक उड़ाया। बेटे की यह पीड़ा द्रोण जी से न सही गई। वे पांचाल के राजा द्रुपद के यहाँ जाने का विचार करके घर से निकले। यह पांचाल भूमि आजकल की बरेली और उसके आस-पास के इलाके की भूमि थी। द्रुपद जब साथ-साथ थे तो बड़ी दोस्ती थी। मगर अब जो द्रोण की फटेहाल सूरत देखी तो घमण्ड के मारे सीधे मुंह से बात तक न की। द्रोण ने कहा कि तुम हमारे मित्र हो। इस पर द्रुपद ने तड़ से रूखा जवाब दिया कि दोस्ती बराबर वालों में होती है। तब हम पढ़ते थे इसलिए बराबर थे। अब मैं राजा और तुम भिखारी हो, फिर हमारे बीच में दोस्ती कैसे? इस तरह अपमानित करके निकाल दिया। द्रोण ने उसी समय यह प्रतिज्ञा की थी कि इस द्रुपद को उसके घमण्ड का मजा चखा दूंगा। भगवान ने उन्हें बहुत अच्छा अवसर भी दे दिया। कुरु कुल के बेटे उन्हें शिष्यों के रूप में मिल गए। उन्होंने बड़ी लगन से कौरवों और पांडवों को सभी हरवे-हथियार चलाने में निपुण कर दिया। धर्नुविद्या उन दिनों सबमें श्रेष्ठ मानी जाती थी। उसमें द्रोणाचार्य का एक शिष्य ऐसा चमत्कारी निशानेबाज हो गया था कि गुरु जी उस पर अपने भविष्य की आशायें टिकाने लगे। उस शिष्य का नाम अर्जुन था। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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