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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
भीमसेन और द्रोणाचार्य का पराक्रम
शाम हुई लड़वैये अपनी-अपनी छावनियों में लौट गये। घायलों की मरहम-पट्टी होने लगी। बहुत से दिन भर की थकान उतारने के लिए स्नान करने लगे। कोई आपस की गपशप में दिन भर के युद्ध की समीक्षा करने लगा। लड़वैये अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए एक-दूसरे की छावनियों पर जाने लगे। कहीं भजन-मण्डली बैठ गई तो कहीं हल्के-फुल्के नाच-गाने और हंसी-मजाक से दिन-भर की थकान को मिटाया जाने लगा। अब तक के युद्ध परिणामों से दुखी होकर दुर्योधन फिर द्रोणाचार्य के पास जा पहुँचा। वह बोला- “हे महासेनापति, उस दिन आपने अपनी सत्यनिष्ठा का बड़ा दम भरा था और यह प्रतिज्ञा की थी कि युधिष्ठिर को पकड़ कर मेरे हवाले कर देंगे, परन्तु मैं देखता हूँ कि आपकी उस प्रतिज्ञा और सत्य-निष्ठा के दावे का कोई मूल्य नहीं है। आप हम सबको बहलाने के लिए दिन भर इधर-उधर तो बहुत घमासान मचाते फिरते हैं, परन्तु युधिष्ठिर को पकड़ने से कन्ने काटते हैं।” “दुर्योधन, तुम सचमुच अन्यायी हो। दुनिया देख रही है कि मैं कितने जी जान से युद्ध कर रहा हूँ और फिर भी तुम ऐसी जली-कटी बातें मुझे सुनाते हो।” दुर्योधन- “क्यों न सुनाऊं गुरु जी, भला आप प्रतिज्ञा करें और वह पूरी न हो तो इसमें दोष किसका माना जायेगा? आप जिसे पकड़ना चाहें वह पकड़ाई में न आए तो लोग केवल दो तरह की ही बातें सोच सकते हैं, एक तो यह कि गुरु जी अब गुड़ हो गये हैं और उनके चेले शक्कर। या फिर जो प्रतिज्ञा आपने की है वह केवल एक रस्म अदायगी भर ही है। उसमें तनिक भी सच्चाई नहीं है। आप पाण्डवों को जिताना चाहते हैं।” |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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