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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
भीमसेन और द्रोणाचार्य का पराक्रम
द्रोणाचार्य ने अपने जोश में आकर कहा- “मैं वचन देता हूँ पुत्र कि तुम्हें प्रसन्न करने के लिए मैं ऐसा ही करूंगा।” द्रोणाचार्य की इस प्रतिज्ञा का समाचार चतुर जासूसों ने धर्मराज युधिष्ठिर को आकर सुना दिया। उन्होंने तुरन्त ही अपने भाई अर्जुन को बुलाया और गुरु जी की प्रतिज्ञा वाली बात सुनाकर कहा- “हे वीर, शत्रुनासन द्रोणाचार्य की इस अटल प्रतिज्ञा को केवल तुम ही भंग कर सकते हो। इसलिए कल तुम युद्ध में मेरी रक्षा करना जिससे कि दुर्योधन मुझे बन्दी बनाने की चाल में सफल न हो सके।” अर्जुन बोला- “पूज्य भैया! मेरे रहते गुरुवर द्रोणाचार्य ही क्या यदि स्वयं देवता भी विष्णु और इन्द्र के साथ आपको पकड़ने आयें तो निश्चय ही वह भी मुंह की खाकर वापस लौटेंगे।” रातोंरात कौरवों-पाण्डवों की छावनियों में महावीर गुरु-चेले की प्रतिज्ञाओं की खबर फैल गई। दोनों पक्षों में यह सनसनी भर उठी कि देखें कल क्या होता है। दोनों पक्षों के सिपाहियों और नायकों को यह बात स्पष्ट हो गई थी कि अब युद्ध में कोई भी किसी की मुरब्बत नहीं करेगा। दूसरे दिन युद्ध के डंके बजे और घमासान युद्ध छिड़ गया। भीम और उसके बेटे घटोत्कच ने कौरव सेनाओं के धुर्रे उड़ा दिये। इन बाप-बेटों की मार से कौरवों की व्यूह रचना टूटने लगी। यह देखकर दुर्योधन ने राजा भगदत्त को घटोत्कच से लड़ने के लिए भेजा और खुद युधिष्ठिर को पकड़ने की तिकड़म में वहाँ पहुँचा, जहाँ गुरु द्रोण लड़ रहे थे। उस दिन युद्ध-क्षेत्र में भयंकर प्रलय मची थी। द्रोणाचार्य ने ऐसा युद्ध किया कि पाण्डव सेना त्राहि-त्राहि बोलने की स्थिति में पहुँच गई। यह होते हुए भी भीम-अर्जुन के रहते पाण्डव सेना का मनोबल टूट नहीं सकता था। द्रोणाचार्य जी के द्वारा बड़ी मेहनत से बनाई गई मोर्चे बन्दियों और दुर्योधन की सारी कुटिल चालें धरी की धरी रह गईं, किन्तु युधिष्ठिर न पकड़े जा सके। खीझ कर द्रोणाचार्य ने अगले दिन और भी अधिक घमासान मचाने की प्रतिज्ञा की। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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