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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
भीमसेन और द्रोणाचार्य का पराक्रम
अपने बेटों और उनके बहुत से सहायक वीरों के मारे जाने से महाराज धृतराष्ट्र व्याकुल हो उठे। उन्हें यह विश्वास हो गया कि श्रीकृष्ण और पाण्डवों से लड़कर विजय पाना कठिन नहीं असंभव भी है। उन्हें रह-रह कर इस बात का पछतावा होता था कि उन्होंने भीष्म, विदुर आदि की सलाह मान कर पाण्डवों को पांच गांव क्यों न दे दिये। उन्हें शकुनि आदि गलत सलाह देने वाले दुर्योधन के साथियों पर भी क्रोध आने लगा। ये मूर्ख और दम्भी राजा-महाराजा पाण्डवों की शक्ति को न पहचान कर अपनी घमण्ड भरी बातों से मेरे बेटों को उभार-उभार कर दिनों दिन उन्हें युद्धोन्मत्त बनाते रहे और अब उनसे कुछ भी करते-धरते नहीं बन पड़ रहा है। महाराज धृतराष्ट्र के मन में इतना क्षोभ हुआ कि उन्होंने दुर्योधन को बुलाकर युद्ध बन्द करने की आज्ञा देने का निश्चय कर लिया। दुर्योधन को अपने पिता की इस मनोदशा का पता चल गया, पर वह अब पाण्डवों से हरगिज समझौता नहीं कर सकता था। युद्ध में उसकी जितनी हानि अब तक हुई थी, उतनी ही घृणा भी उसके मन में भर चुकी थी। इस दुनिया में या तो पाण्डव ही रहेंगे या फिर हम लोग, यह सब सोचकर दुर्योधन अपने गुरु और प्रधान सेनापति द्रोणाचार्य के शिविर में जा पहुँचा। दुर्योधन ने उनसे कहा, “आचार्य! आप जानते हैं कि पिताजी पाण्डवों से समझौता कर लेने की इच्छा कर रहे हैं। उन्हें विश्वास हो गया है कि अर्जुन ने भीष्म पितामह को ऐसा घायल कर दिया है कि अब वे अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा ही कर सकते हैं और यही वे कर भी रहे हैं। आपकी वीरता पर भी लोग मुंह से लांछन लगा रहे हैं। लोगों का कहना है कि आप जान-बूझकर अर्जुन आदि पाण्डवों को मारने में देर कर रहे हैं।” दुर्योधन से यह सुनकर द्रोणाचार्य तड़प उठे। उन्होंने कहा- “हे कुरुनन्दन, तुम जब होता है तब मुझ पर यही लांछन लगाया करते हो। तुम लोग अपने पूज्य पितामह पर भी इसी प्रकार से छींट कसा करते थे। जब तुम अपने दादा तक को कहनी न कहनी सुना सकते हो, तब फिर भला मेरी क्या बिसात है। पहले मै। तुम्हारे पिता का नौकर था अब तुम्हारा भी हूँ। दास अपने स्वामी के आगे भला क्या कह सकता है। कहो, तुम्हें और भी जो कहना हो, सब कह डालो।” |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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