विषय सूची
महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
भीष्म-युधिष्ठिर की भेंट
भीष्म पितामह के इन मृदुल वचनों को सुनकर श्रीकृष्ण का क्रोध शान्त हो गया और उस दिन का युद्ध भी समाप्त हो गया। दूसरे दिनों के बजाय उस दिन इतना लाभ तो अवश्य हुआ कि भीष्म पितामह सारे दिन अर्जुन से ही जूझते रहे। जिससे पाण्डव पक्ष की सेनाओं का अधिक नुकसान न हो सका। अगले दिन फिर मरने वाले वीरों के लहू से युद्ध भूमि लाल होने लगी। भीम ने अर्जुन को समझाया कि अपने साथ-साथ शिखंडी को भी रथ पर बिठा ले जाओ परन्तु वे राजी न हुए। उन्होंने कहा- “मैं यह पाप नहीं करूंगा। मैं या पितामह एक-दूसरे से लड़ते हुए यदि वीरगति पाएं तब तो कोई बात नहीं, परन्तु इस प्रकार धोखा देकर मैं उनसे कदापि नहीं लड़ूंगा।” श्रीकृष्ण ने अर्जुन की बात सुनकर भीम को आंखों में यह इशारा किया कि मेरा संकेत पाते ही शिखंडी को रथ पर भेज देना। सुनते हैं कि भीष्म पितामह भी अपने जीवन से ऊब गये थे। उन्होंने पाण्डवों के यहाँ संकेत के रूप में यह बात पहुँचाई थी कि शिखंडी की आड़ लेने पर मैं युद्ध नहीं करूंगा। अर्जुन उस समय मुझ पर प्रहार कर सकता है। भीम और कृष्ण तो इस छल-युद्ध के लिए राजी थे, क्योंकि स्वयं पितामह की भी ऐसी इच्छा थी, किन्तु अर्जुन जैसा महावीर ऐसे छल-युद्ध को कभी पसन्द ही नहीं कर सकता था। विशेष रूप से अपने पूज्य पितामह के साथ ऐसा छल-कपट करना तो उसकी शान के ख़िलाफ़ बात थी। मगर श्रीकृष्ण ने जो ठान लिया था, वह होना ही था। दूसरे दिन भी सारे दिन पितामह भीष्म और महावीर अर्जुन एक-दूसरे से युद्ध में गुथे रहे। दिन ढलने को आया मगर दोनों ओर से किसी का बल घटता नहीं दिखलाई पड़ता था। सच तो यह है कि भीष्म उस दिन भी अर्जुन से प्रबल पड़ रहे थे। देखते-देखते एकाएक शिखंडी का रथ सामने आ गया। भीष्म पितामह ने उसे देखते ही अपने धनुष-बाण रथ पर रख दिए। उन्होंने कहा- “मैं मर्दों से लड़ता हूँ नपुंसक से नहीं।” शिखंडी जानता था कि भीष्म उसकी हत्या कभी नहीं करेंगे, इसलिए वह बढ़-बढ़कर उन्हें अपमानजनक बातें सुनाने लगा। यह देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- “मित्र, देखते क्या हो यही अवसर है बाण चलाओ।” |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज