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महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद
- धर्म, काम और अर्थ सम्बन्धी कार्यों को करने से पहले न बतावे, करके ही दिखावे। ऐसा करने से अपनी मन्त्रणा दूसरों पर प्रकट नहीं होती। (16)
- पर्वत की चोटी अथवा राजमहल पर चढ़कर एकान्त स्थान में जाकर या जंगल में तृण आदि से अनावृत स्थान पर मन्त्रणा करनी चाहिये। (17)
- भारत! जो मित्र न हो, मित्र होने पर भी पण्डित न हो, पण्डित होने पर भी जिसका मन वश में न हो, वह अपनी गुप्त मन्त्रणा जानने के योग्य नहीं है। (18)
- राजा अच्छी तरह परीक्षा किये बिना किसी को अपना मन्त्री न बनावे; क्योंकि धन की प्राप्ति और मन्त्र की रक्षा का भार मन्त्री पर ही रहता है। जिसके धर्म, अर्थ और काम विषयक सभी कार्यों को पूर्ण होने के बाद ही सभासदगण जान पाते हैं, वही राजा समस्त राजाओं में श्रेष्ठ है। अपने मन्त्र को गुप्त रखने वाले उस राजा को नि:संदेह सिद्धि प्राप्त होती हैं। (19-21)
- जो मोहवश बुरे[1] कर्म करता है, वह उन कार्यों का विपरीत परिणाम होने से अपने जीवन से भी हाथ धो बैठता है। (22)
- उत्तम कर्मों का अनुष्ठान तो सुख देने वाला होता है, किंतु उन्हीं का अनुष्ठान न किया जाय तो वह पश्चात्ताप का कारण माना गया है। (23)
- जैसे वेदों को पढ़े बिना ब्राह्मण श्राद्धकर्म करवाने का अधिकारी नहीं होता, उसी प्रकार सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय नामक छ: गुणों को जाने बिना कोई गुप्त मन्त्रणा सुनने का अधिकारी नहीं होता। (24)
- राजन! जो सन्धि-विग्रह आदि छ: गुणों की जानकारी के कारण प्रसिद्ध है, स्थिति, वृद्धि और ह्रास को जानता है तथा जिसके स्वभाव की सब लोग प्रशंसा करते हैं, उसी राजा के अधीन पृथ्वी रहती है। (25)
- जिसके क्रोध और हर्ष व्यर्थ नहीं जाते, जो आवश्यक कार्यों की स्वयं देखभाल करता है और खजाने की भी स्वयं जानकारी रखता है, उसकी पृथ्वी पर्याप्त धन देने वाली ही होती। (26)
- भूपति को चाहिये कि अपने ‘राजा’ नाम से और राजोचित ‘छत्र’ के धारण से संतुष्ट रहे सेवकों को पर्याप्त धन दे, सब अकेला ही न हड़प ले। (27)
- ब्राह्मण को ब्राह्मण जानता है, स्त्री को उसका पति जानता है, मन्त्री को राजा जानता है और राजा को भी राजा ही जानता है। (28)
- वश में आये हुए वध के योग्य शत्रु को कभी छोड़ना नही चाहिये। यदि अपना बल अधिक न हो तो नम्र होकर उसके पास समय बिताना चाहिये और बल होने पर उसे मार ही ड़ालना चाहिये; क्योंकि यदि शत्रु मारा न गया तो उससे शीघ्र ही भय उपस्थित होता है। (29)
- देवता, ब्राह्मण, राजा, वृद्ध, बालक और रोगी पर होने वाले क्रोध को प्रयत्नपूर्वक सदा रोकना चाहिये। (30)
- मूर्खों द्वारा सेवित निरर्थक कलह का बुद्धिमान पुरुष को त्याग कर देना चाहिये। ऐसा करने से उसे लोक में यश मिलता है और अनर्थ का सामना नहीं करना पड़ता। (31)
- जिसके प्रसन्न होने का कोई फल नहीं तथा जिसका क्रोध भी व्यर्थ होता है, ऐसे राजा को प्रजा उसी भाँति नहीं चाहती, जैसे स्त्री नंपुसक पति को। (32)
- बुद्धि से धन प्राप्त होता है और मूर्खता दरिद्रता का कारण है- ऐसा कोई नियम नहीं है। संसार चक्र के वृत्तान्त को केवल विद्वान पुरुष ही जानते हैं, दूसरे लोग नहीं। (33)
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