महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 35 श्लोक 51-68

पंचत्रिंश (35) अध्‍याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: पंचत्रिंश अध्याय: श्लोक 51-68 का हिन्दी अनुवाद

शुभ कर्मों से लक्ष्मी की उत्‍पत्ति होती है, प्रगल्‍भता से वह बढ़ती है, चतुरता से जड़ जमा लेती है और संयम से सुरक्षित रहती है। आठ गुण पुरुष की शोभा बढ़ाते हैं- बुद्धि, कुलीनता, दम, शास्‍त्रज्ञान, पराक्रम, बहुत न बोलना, यथाशक्ति दान देना ओर कृतज्ञ होना। तात! एक गुण ऐसा है, जो इन सभी महत्त्‍वपूर्ण गुणों-पर हठात अधिकार जमा लेता है। जिस समय राजा किसी मनुष्‍य का सत्‍कार करता है, उस समय यह एक ही गुण (राजसम्‍मान) सभी गुणों से बढ़कर शोभा पाता है। राजन! मनुष्‍य लोक में ये आठ गुण स्‍वर्गलोक का दर्शन कराने वाले हैं; इनमें से चार तो संतों के साथ नित्‍य सम्‍बद्ध हैं- उनमें सदा विद्यमान रहते हैं और चार का सज्‍जन पुरुष अनुसरण करते हैं। यज्ञ, दान, शास्‍त्रों का अध्‍ययन और तप- ये चार सज्‍जनों के साथ नित्‍य सम्‍बद्ध हैं; इन्द्रियनिग्रह, सत्‍य, सरलता तथा कोमलता- इन चारों का संत लोग अनुसरण करते हैं। यज्ञ, अध्‍ययन, दान, तप, सत्‍य, क्षमा, दया और निर्लोभता- ये धर्म के आठ प्रकार के मार्ग बताये गये हैं। इनमें से पहले चारों का तो कोई[1] दम्‍भ के लिये सेवन कर सकता है, पर‍ंतु अंतिम चार तो जो महात्‍मा नहीं हैं, उनमें रह ही नहीं सकते। जिस सभा में बड़े-बूढ़े नहीं, वह सभा नहीं; जो धर्म की बात न कहे, वे बूढ़े नहीं; जिसमें सत्‍य नहीं,वह धर्म नहीं और जो कपट से पूर्ण हो, वह सत्‍य नहीं है। सत्य,विनय की मुद्रा, शास्‍त्रज्ञान, विद्या, कुलीनता, शील, बल, धन, शूरता और चमत्‍कारपूर्ण बात कहना- ये दस स्‍वर्ग के हेतु हैं।

पापकीर्ति वाला निन्दित मनुष्‍य पापाचरण करता हुआ पाप के फल को ही प्राप्‍त करता है और पुण्‍य कीर्ति वाला (प्रशंसित) मनुष्‍य पुण्‍य करता हुआ अत्‍यंत पुण्‍यफल का ही उपभोग करता है। इसलिये प्रशंसित व्रत का आचरण करने वाले पुरुष को पाप नहीं करना चाहिये; क्‍योंकि बारंबार‍ किया हुआ पाप बुद्धि को नष्‍ट कर देता। जिसकी बुद्धि नष्‍ट हो जाती है, वह मनुष्‍य सदा पाप ही करता रहता है। इसी प्रकार बारंबार किया हुआ पुण्‍य बुद्धि को बढ़ाता है। जिसकी बुद्धि बढ़ जाती है, वह मनुष्‍य सदा पुण्‍य ही करता है। इस प्रकार पुण्‍यकर्मा मनुष्‍य पुण्‍य करता हुआ पुण्‍यलोक को ही जाता है।

इसलिये मनुष्‍य को चाहिये कि वह सदा एकाग्रचित्त होकर पुण्‍य का ही सेवन करे। गुणों में दोष देखने वाला, मर्म पर आघात करने वाला, निर्दयी, शत्रुता करने वाला और शठ मनुष्‍य पाप का आचरण करता हुआ शीघ्र ही महान कष्‍ट को प्राप्‍त होता है। दोष दृष्टि से रहित शुद्ध बुद्धि वाला पुरुष सदा शुभकर्मों का अनुष्‍ठान करता हुआ महान सुख को प्राप्‍त होता है और सर्वत्र उसका सम्‍मान होता है। जो बुद्धिमान पुरुषों से सद्बुद्धि प्राप्‍त करता है, वही पण्डित है; क्‍योंकि बुद्धिमान पुरुष ही धर्म और अर्थ को प्राप्‍त कर अनायास ही अपनी उन्‍नति करने में समर्थ होता है। दिन भर में ही वह कार्य कर ले, जिससे रात में सुख से रह सके और आठ महीनों में वह कार्य कर ले, जिससे वर्षां के चार महीने सुख से व्‍यतीत कर सके। पहली अवस्‍था में वह काम करे, जिससे वृद्धावस्‍था में सुखपूर्वक रह सके और जीवन भर वह कार्य करे, जिससे मरने के बाद भी [2] सुख से रह सके।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दम्‍भी पुरुष भी
  2. परलोक में

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