षड्विंश (26) अध्याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: षड्विंश अध्याय: श्लोक 10-24 का हिन्दी अनुवाद
संजय! जैसे कोई मनुष्य शिशिर ॠतु बीतने पर ग्रीष्म-ॠतु की दोपहरी में बहुत घास-फूस से भरे हुए गहन वन में आग लगा दे और जब हवा चलने से वह आग सब ओर फैलकर अपने निकट आ जाय, तब उसकी ज्वाला से अपने आपको बचाने के लिये वह कुशल-क्षेम की इच्छा रखकर बार-बार शोक करने लगे, उसी प्रकार आज राजा धृतराष्ट्र सारा ऐश्र्वर्य अपने अधिकार में करके खोटी बुद्धिवाले, उद्दण्ड, भाग्यहीन, मूर्ख और किसी अच्छे मन्त्री की सलाह के अनुसार न चलने वाले अपने पुत्र दुर्योधन का पक्ष लेकर अब किस लिये [1] विलाप करते हैं?। अपने पुत्र दुर्योधन का प्रिय चाहने वाले राजा धृतराष्ट्र अपने सबसे अधिक विश्वासपात्र विदुरजी के वचनों को अविश्वसनीय-से समझकर उनकी अवहेलना करके जान-बूझकर अधर्म के ही पथ का आश्रय ले रहे हैं। बुद्धिमान, कौरवों के अभीष्ट की सिद्धि चाहने वाले, बहुश्रुत विद्वान, उत्तम वक्ता तथा शीलवान विदुरजी का भी राजा धृतराष्ट्र के कौरवों के हित के लिये पुत्र स्नेह की लालसा से आदर नहीं किया। संजय! दूसरों का मान मिटाकर अपना मान चाहने वाले ईर्ष्यालु, क्रोधी, अर्थ और धर्म का उल्लन्घन करने वाले, कटुवचन बोलने वाले, क्रोध और दीनता के वशवर्ती, कामात्मा (भोगासक्त), पापियों से प्रशंसित, शिक्षा देने के अयोग्य, भाग्यहीन, अधिक क्रोधी, मित्र द्रोही तथा पापबुद्धि पुत्र दुर्योधन का प्रिय चाहने वाले राजा धृतराष्ट्र ने समझते हुए भी धर्म और काम का परित्याग किया है। संजय! जिस समय मैं जूआ खेल रहा था, उसी समय की बात है, विदुरजी शुक्रनीति के अनुसार युक्तियुक्त वचन कह रहे थे, तो भी दुर्योधन की ओर से उन्हें प्रशंसा नहीं प्राप्त हुई। तभी मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ था कि सभ्भवत: कौरवों का विनाशकाल समीप आ गया है। सूत! जब कौरव विदुरजी की बुद्धि के अनुसार बर्ताव करते और चलते थे, तब तक सदा उनके राष्ट्र की वृद्धि ही होती रही। जबसे उन्होंने विदुरजी से सलाह लेना छोड़ दिया, तभी से उनपर विपत्ति आ पड़ी है। गवल्गणपुत्र संजय! धन के लोभी दुर्योधन के जो-जो मन्त्री हैं, उनके नाम आज तुम मुझसे सुन लो। दु:शासन, शकुनि तथा सूतपुत्र कर्ण- ये ही उसके मन्त्री हैं। उसका मोह तो देखो। मैं बहुत सोचने विचारने पर भी कोई ऐसा उपाय नहीं देखता, जिससे कुरु तथा सृंजयवंश दोनों का कल्याण हो। धृतराष्ट्र हम शत्रुओं से ऐश्र्वर्य छीनकर दूरदर्शी विदुर को देश से निर्वासित करके अपने पुत्रों सहित भूमण्डल का निष्कण्टक साम्राज्य प्राप्त करने की आशा लगाये बैठे हैं। ऐसे लोभी नरेश के साथ केवल संधि ही बनी रहेगी, [2] यह सम्भव नहीं जान पड़ता; क्योंकि हम लोगों के वन चले जाने पर वे हमारे सारे धन को अपना ही मानने लगे हैं। कर्ण जो ऐसा समझता है कि युद्ध में धनुष उठाये हुए अर्जुन को जीत लेना सहज है, वह उसकी भूल है। पहले भी तो बड़े-बडे़ युद्ध हो चुके हैं। उनमें कर्ण इन कौरवों का आश्रयदाता क्यों न हो सका? अर्जुन से बढ़कर दूसरा कोई धनुर्धर नहीं है-इस बात को कर्ण जानता है, दुर्योधन जानता है, आचार्य द्रोण और पितामह भीष्म जानते हैं तथा अन्य जो-जो कौरव वहाँ रहते हैं,वे सब भी जानते हैं। समस्त कौरव तथा वहाँ एकत्र हुए अन्य भूपाल भी इस बात को जानते हैं कि शत्रुदमन अर्जुन के उपस्थित रहते हुए दुर्योधन ने किस उपाय से पाण्डवों का राज्य प्राप्त किया [3]। राज्य आदि पर जो पाण्डवों का ममत्व है, उसे हर लेना क्या दुर्योधन सरल समझता है? इसके लिये उसे उन किरीटधारी अर्जुन के साथ युद्धभूमि में उतरना पड़ेगा, जो चार हाथ लंबा धनुष धारण करते हैं और धनुर्वेद के प्रकाण्ड विद्वान हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दीन की भाँति
- ↑ युद्ध आदि का अवसर नहीं आयेगा
- ↑ अर्थात उन्होंने अपनी वीरता से नहीं, अपितु छलपूर्वक जूए के द्वारा ही हमारा राज्य लिया
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