|
महाभारत: उद्योग पर्व: एकषष्टयधिकशततम श्लोक 24-43 का हिन्दी अनुवाद
- अर्जुन! बातें न बनाकर युद्ध करो। बहुत आत्मप्रशंसा क्यों करते हो विभिन्न प्रकारों से युद्ध करने पर ही राज्य की सिद्धि हो सकती है। झूठी आत्मप्रशंसा करने से इस कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। (24)
- धनंजय! यदि जगत में अपनी झूठी प्रशंसा करने से ही अभीष्ट कार्य की सिद्धि हो जाती, तब तो सब लोग सिद्धकाम हो जाते; क्योंकि बातें बनाने में कौन दरिद्र और दुर्बल होगा? (25)
- मैं जानता हूँ कि तुम्हारे सहायक वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण हैं, मैं यह भी जानता हूँ कि तुम्हारे पास चार हाथ लंबा गाण्डीव धनुष है तथा मुझे यह भी मालूम है कि तुम्हारे जैसा दूसरा कोई योद्धा नहीं है; यह सब जानकर भी मैं तुम्हारे इस राज्य का अपहरण करता हूँ। (26)
- कोई भी मनुष्य नाम मात्र के धर्म द्वारा सिद्धि नहीं पाता, केवल विधाता ही मानसिक संकल्प मात्र से सबको अपने अनुकूल और अधीन कर लेता है। (27)
- तुम रोते-बिलखते रह गये और मैंने तेरह वर्षों तक तुम्हारा राज्य भोगा। अब भाइयों सहित तुम्हारा वध करके आगे भी मैं ही इस राज्य का शासन करूंगा। (28)
- दास अर्जुन! जब तुम जुए के दांव पर जीत लिये गये, उस समय तुम्हारा गाण्डीव धनुष कहाँ था, भीमसेन का बल भी उस समय कहाँ चला गया था? (29)
- गदाधारी भीमसेन अथवा गाण्डीवधारी अर्जुन से भी उस समय सती साध्वी द्रौपदी का सहारा लिये बिना तुम लोगों का दास भाव से उद्धार न हो सका। (30)
- तुम सब लोग अमनुष्योचित दीन दशा को प्राप्त हो दास भाव में स्थित थे। उस समय द्रुपदकुमारी कृष्णा ने ही दासता के संकट में पड़े हुए तुम सब लोगों को छुड़ाया था। (31)
- मैंने जो उन दिनों तुम लोगों को हिजड़ा या नपुंसक कहा था, वह ठीक ही निकला; क्योंकि अज्ञातवास के समय विराटनगर में अर्जुन को अपने सिर पर स्त्रियों की भाँति वेणी धारण करनी पड़ी। (32)
- कुन्तीकुमार! तुम्हारे भाई भीमसेन को राजा विराट के रसोई घर में रसोइये के काम में ही संलग्न रहकर जो भारी श्रम उठाना पड़ा, वह सब मेरा ही पुरुषार्थ है। (33)
- इसी प्रकार सदा से ही क्षत्रियों ने अपने विरोधी क्षत्रिय को दण्ड दिया है। इसीलिये तुम्हें भी सिर पर वेणी रखाकर और हिजड़ों का वेष बनाकर राजा विराट की कन्या को नचाने का काम करना पड़ा। (34)
- फाल्गुन! श्रीकृष्ण के या तुम्हारे भय से मैं राज्य नहीं लौटाऊँगा। तुम श्रीकृष्ण के साथ आकर युद्ध करो। (35)
- माया, इन्द्रजाल अथवा भयानक छलना संग्राम भूमि में हथियार उठाये हुए वीर के क्रोध और सिंहनाद को ही बढ़ाती हैं मुझे भयभीत नहीं कर सकती हैं। (36)
- हजारों श्रीकृष्ण और सैंकडों अर्जुन भी अमोघ बाणों वाले मुझ वीर के पास आकर दसों दिशाओं में भाग जायेंगे। (37)
- तुम भीष्म के साथ युद्ध करो या सिर से पहाड़ फोड़ो या सैनिकों के अत्यन्त गहरे महासागर को दोनों बाँहों से तैरकर पार करो। (38)
- हमारे सैन्यरूपी महासमुद्र में कृपाचार्य महामत्स्य के समान हैं, विविंशति उसे भीतर रहने वाला महान सर्प है, बृहद्बल उसके भीतर उठने वाले महान ज्वार के समान है, भूरिश्रवा तिमिंगल नामक मत्स्य के स्थान में है। (39)
- भीष्म उसके असीम वेग है, द्रोणाचार्य रूपी ग्राहके होने से इस सैन्य सागर में प्रवेश करना अत्यन्त दुष्कर है, कर्ण और शल्य क्रमश: मत्स्य तथा आवर्त (भंवर) का काम करते हैं और काम्बोजराज सुदक्षिण इसमें बड़बानल हैं। (40)
- दु:शासन उसके तीव्र प्रवाह के समान है, शल और शल्य मत्स्य है, सुषेण और चित्रायुध नाग और मकर के समान हैं, जयद्रथ पर्वत है, पुरु मित्र उसकी गम्भीरता है, दुर्मर्षण जल है और शकुनि प्रपात (झरने) का काम देता है। (41)
- भाँति-भाँति के शस्त्र इस सैन्यसागर के जल प्रवाह है। यह अक्षय होने के साथ ही खूब बढ़ा हुआ है। इसमें प्रवेश करने पर अधिक श्रम के कारण जब तुम्हारी चेतना नष्ट हो जायेगी, तुम्हारे समस्त बन्धु मार दिये जायेंगे, उस समय तुम्हारे मन को बढ़ा संताप होगा। (42)
- पार्थ! जैसे अपवित्र मनुष्य का मन स्वर्ग की ओर से निवृत्त हो जाता है क्योंकि उसके लिये स्वर्ग की प्राप्ति असम्भव है, उसी प्रकार तुम्हारा मन भी उस समय इस पृथ्वी पर राज्यशासन करने से निराश होकर निवृत्त जायेगा। अर्जुन! शान्त होकर बैठ जाओ। राज्य तुम्हारे लिये अत्यन्त दुर्लभ है। जिसने तपस्या नहीं की है, वह जैसे स्वर्ग पाना चाहे, उसी प्रकार तुमने भी राज्य की अभिलाषा की है। (43)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत उलूकदूतागमनपर्व उलूकवाक्यविषयक एक सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
|