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महाभारत: उद्योग पर्व: षष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 84-103 का हिन्दी अनुवाद
- ‘जिसे नाना प्रकार का क्लेश दिया गया हो, दीर्घकाल के लिये राज्य से निर्वासित किया गया हो तथा जिसे राज्य से वंचित होकर दीनभाव से जीवन बिताना पड़ा हो, ऐसे किस स्वाभिमानी पुरुष का हृदय विदीर्ण न हो जायेगा। (84)
- जो उत्तम कुल में उत्पन्न, शूरवीर तथा पराये धन के प्रति लोभ न रखने वाला हो, उसके राज्य को यदि कोई दबा बैठा हो तो वह किस वीर के क्रोध को उद्दीप्त न कर देगा। (85)
- तुमने जो बड़ी-बड़ी बातें कही हैं, उन्हें कार्यरूप में परिणत करके दिखाओ! जो क्रिया द्वारा कुछ न करके केवल मुंह से बातें बनाता है, उसे सज्जन पुरुष कायर मानते हैं। (86)
- तुम्हारा स्थान और राज्य शत्रुओं के हाथ में पड़ा है, उसका पुनरुद्धार करो। युद्ध की इच्छा रखने वाले पुरुष के ये दो ही प्रयोजन होते हैं; अत: उनकी सिद्धि के लिये पुरुषार्थ करो। (87)
- तुम जूए में पराजित हुए और तुम्हारी स्त्री द्रौपदी को सभा में लाया गया। अपने को पुरुष मानने वाले किसी भी मनुष्य को इन बातों के लिये भारी अमर्ष हो सकता है। (88)
- तुम बारह वर्षों तक राज्य से निर्वासित होकर वन में रहे हो और एक वर्ष तक तुम्हें विराट का दास होकर रहना पड़ा है। (89)
- पाण्डुनन्दन! राज्य से निर्वासन का, वनवास का और द्रौपदी के अपमान का क्लेश याद करके तो मर्द बनो। (90)
- हम लोग बार-बार तुम लोगों के प्रति अप्रिय वचन कहते हैं। तुम हमारे ऊपर अपना अमर्ष तो दिखाओ। क्योंकि अमर्ष ही पौरूष है। (91)
- पार्थ! यहाँ लोग तुम्हारे क्रोध, बल, वीर्य, ज्ञान योग और अस्त्र लाने की फुर्ती आदि गुणों को देखें। युद्ध करो और अपने पुरुष्त्व का परिचय दो। (92)
- अब लोहमय अस्त्र–शस्त्रों को बाहर निकालकर तैयार करने का कार्य पूरा हो चुका है। कुरुक्षेत्र की कीच भी सूख गयी है। तुम्हारे घोडे़ खूब हष्ट-पुष्ट हैं और सैनिकों का भी तुमने अच्छी तरह भरण-पोषण किया है; अत: कल सवेरे से ही श्रीकृष्ण के साथ आकर युद्ध करो। (93)
- अभी युद्ध में भीष्मजी के साथ मुठभेड़ किये बिना तुम क्यों अपनी झूठी प्रशंसा करते हो? कुन्तीनन्दन! जैसे कोई शक्तिहीन एवं मन्दबुद्धि पुरुष गन्धमादन पर्वत पर चढ़ना चाहता हो, उसी प्रकार तुम भी अपनी झूठी बड़ाई करते हो। मिथ्या आत्मप्रशंसा न करके पुरुष बनो। (94)
- पार्थ! अत्यन्त दुर्जय वीर सूतपुत्र कर्ण, बलवानों से श्रेष्ठ शल्य तथा युद्ध में इन्द्र के समान पराक्रमी एवं बलवानों में अग्रगण्य द्रोणाचार्य को युद्ध में परास्त किये बिना तुम यहाँ राज्य कैसे लेना चाहते हो। (95-96)
- कुन्तीपुत्र! आचार्य द्रोण ब्रह्मवेद और धनुर्वेद इन दोनों के पारंगत पण्डित हैं। ये युद्ध का भार वहन करने में समर्थ, अक्षोभ्य, सेना के मध्य भाग में विचरने वाले तथा युद्ध के मैदान से पीछे न हटने वाले हैं। इन महातेजस्वी द्रोण को जो तुम जीतने की इच्छा रखते हो, वह मिथ्या साहस मात्र है। वायु ने सुमेरू पर्वत को उखाड़ फेंका हो, यह कभी हमारे सुनने में नहीं आया है इसी प्रकार तुम्हारे लिये भी आचार्य को जीतना असम्भव है। (97-98)
- तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, वह यदि सत्य हो जाय, तब तो हवा मेरु को उठाले, स्वर्गलोक इस पृथ्वी पर गिर पड़े अथवा युग ही बदल जाय। (99)
- अर्जुन हो या दूसरा कोई, जीवन की इच्छा रखने वाला कौन ऐसा वीर है, जो युद्ध में इन शत्रुदमन आचार्य के पास पहुँचकर कुशलपूर्वक घर को लौट सके। (100)
- ये दोनों द्रोण और भीष्म जिसे मारने का निश्चय कर लें अथवा उनके भयानक अस्त्र आदि से जिसके शरीर का स्पर्श हो जाय, ऐसा कोई भी भूतल निवासी मरणधर्मा मनुष्य युद्ध में जीवित कैसे बच सकता है? (101)
- जैसे देवता स्वर्ग की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशाओं के नरेश तथा काम्बोज, शक, खश, शाल्व, मत्स्य, कुरु और मध्यप्रदेश के सैनिक एवं मलेच्छ, पुलिन्द, द्रविद, आन्ध्र और कांचीदेशीय योद्धा जिस सेना की रक्षा करते हैं, जो देवताओं की सेना के समान दुर्धर्ष एवं संगठित है, कौरवराज की समुद्रतुल्य उस सेना को क्या तुम कूपमण्डूक की भाँति अच्छी तरह समझ नहीं पाते हैं? (102-103)
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