महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 160 श्लोक 64-83

षष्‍टयधिकशततम (160) अध्‍याय: उद्योग पर्व (उलूकदूतागमनपर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: षष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 64-83 का हिन्दी अनुवाद
  • उलूक! उस बिना मूँछों के मर्द अथवा बोझ ढोने वाले बैल, अधिक खाने वाले, अज्ञानी और मूर्ख भीमसेन से भी बारंबार मेरा यह संदेश कहना ‘कुन्‍ती कुमार! पहले विराटनगर में जो तू रसोइया बनकर रहा और बल्लव के नाम से विख्‍यात हुआ, वह सब मेरा ही पुरुषार्थ था। (64-65)
  • पहले कौरव सभा में तूने जो प्रतिज्ञा की थी, वह मिथ्‍या नहीं होनी चाहिये। यदि तुझमें शक्ति हो तो आकर दु:शासन का रक्‍त पी लेना। (66)
  • कुन्‍ती कुमार! तुम जो कहा करते हो कि मैं युद्ध में धृतराष्‍ट्र के पुत्रों को वेगपूर्वक मार डालूंगा, उसका यह समय आ गया है। (67)
  • भारत! तुम निरे भोजनभट्ट हो। अत: अधिक खाने पीने में पुरस्‍कार पाने के योग्‍य हो। किंतु कहाँ युद्ध और कहाँ भोजन? शक्ति हो तो युद्ध करो और मर्द बनो। (68)
  • भारत! युद्धभूमि में मेरे हाथ से मारे जाकर तुम गदा को छाती से लगाये सदा के‍ लिये सो जाओगे। वृकोदर! तुमने सभा में जाकर जो उछल-कूद मचायी थी, वह व्‍यर्थ ही है। (69)
  • उलूक! नकुल से भी कहना- भारत! तुम मेरे कहने से अब स्थिरतापूर्वक युद्ध करो। हम तुम्‍हारा पुरुषार्थ देखेंगे। तुम युधिष्ठिर के प्रति अपने अनुराग को, मेरे प्रति बढ़े हुए द्वेष को तथा द्रौपदी के क्‍लेश को भी इन दिनों अच्‍छी तरह से याद कर लो। (70-71)
  • उलूक! तुम राजाओं के बीच सहदेव से भी मेरी यह बात कहना पाण्‍डुनन्‍दन! पहले के दिये हुए क्‍लेशों को याद कर लो और अब तत्‍पर होकर समरभूमि में युद्ध करो। (72)
  • तदनन्‍तर विराट और द्रुपद से भी मेरी ओर से कहना ‘विधाता ने जब से प्रजा की सृष्टि की है, तभी से परम गुणगान सेवकों ने भी अपने स्‍वामियों की अच्‍छी तरह परख नहीं की; उनके गुण-अवगुण को भलीभाँति नहीं पहचाना। इसी प्रकार स्‍वामियों ने भी सेवकों को ठीक-ठीक नहीं समझा। इसीलिये युधिष्ठिर श्रद्धा के योग्‍य नहीं है, तो भी तुम दोनों उन्‍हें अपना राजा मानकर उनकी ओर से युद्ध के लिये यहाँ आये हो। (73-74)
  • इसलिये तुम सब लोग संगठित होकर मेरे वध के लिये प्रयत्‍न करो। अपनी और पाण्‍डवों की भलाई के लिये मेरे साथ युद्ध करो। (75)
  • फिर पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न को भी मेरा यह संदेश सुना देना- राजकुमार! यह तुम्‍हारे योग्‍य समय प्राप्‍त हुआ है। तुम्‍हें आचार्य द्रोण अपने सामने ही मिल जायेंगे। (76)
  • समरभूमि में द्रोणाचार्य के सामने जाकर ही तुम यह जान सकोगे कि तुम्‍हारा उत्तम हित किस बात में है। आओ, अपने सुदृढों के साथ रहकर युद्ध करो और गुरु के वध का अत्‍यन्‍त दुष्‍कर पाप कर डालो। (77)
  • उलूक! इसके बाद तुम शिखण्‍डी से भी मेरी यह बात कहना- धनुर्धारियों में श्रेष्‍ठ गंगापुत्र कुरुवंशी महाबाहु भीष्‍म तुम्‍हें स्‍त्री समझकर नहीं मारेंगे। इसलिये तुम अब निर्भय होकर युद्ध करना और समरभूमि में यत्‍नपूर्वक पराक्रम प्रकट करना। हम तुम्‍हारा पुरुषार्थ देखेंगे। (78-79)
  • ऐसा कहते-कहते राजा दुर्योधन खिल खिलाकर हंस पड़ा। तत्‍पश्‍चात उलूक से पुन: इस प्रकार बोला- उलूक! तुम वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण के सामने ही अर्जुन से पुन: इस प्रकार कहना। (80)
  • वीर धनंजय! या तो तुम्‍हीं हम लोगों को परास्‍त करके इस पृथ्‍वी का शासन करो या हमारे ही हाथों से मारे जाकर रणभूमि में सदा के लिये सो जाओ। (81)
  • पाण्‍डुनन्‍दन! राज्‍य से निर्वासित होने, वन में निवास करने तथा द्रौपदी के अपमानित होने के क्‍लशों को याद करके अब भी तो मर्द बनो। (82)
  • क्षत्राणी जिसके लिये पुत्र पैदा करती है, वह सब प्रयोजन सिद्ध करने का यह समय आ गया है। तुम युद्ध में बल, पराक्रम,उत्तम शौर्य, अस्‍त्र-संचालन की फुर्ती और पुरुषार्थ दिखाते हुए अपने बढे़ हुए क्रोध को हमारे ऊपर प्रयोग करके शान्‍त कर लो। (83)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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