महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 129 श्लोक 37-54

एकोनत्रिंशदधिकशततम (129) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 37-54 का हिन्दी अनुवाद
  • ‘तात! शांतनुनन्दन भीष्म तथा महारथी द्रोणाचार्य जैसा कह रहे हैं, वह सर्वथा सत्य है। वास्तव में श्रीकृष्ण और अर्जुन अजेय हैं। (37)
  • ‘अत: अनायास ही महान कर्म करने वाले महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण की शरण लो, क्योंकि भगवान केशव प्रसन्न होने पर दोनों ही पक्षों को सुखी बना सकते हैं। (38)
  • ‘जो मनुष्य अपना भला चाहने वाले ज्ञानी एवं विद्वान सुहृदों के शासन में नहीं रहता, उनके उपदेश के अनुसार नहीं चलता, वह शत्रुओं का आनंद बढ़ाने वाला होता है। (39)
  • ‘तात! युद्ध करने में कल्याण नहीं है। उससे धर्म और अर्थ की भी प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर सुख तो मिल ही कैसे सकता है? युद्ध में सदा विजय ही हो, यह भी निश्चित नहीं है; अत: उसमें मन न लगाओ। (40)
  • ‘शत्रुदमन! महाप्राज्ञ! आपस की फूट के भय से ही पितामाह भीष्म ने, तुम्हारे पिता ने और महाराज बाह्लिक ने भी पांडवों को राज्य का भाग प्रदान किया है। (41)
  • ‘उसी के देने का आज तुम यह प्रत्यक्ष फल देखते हो कि उन शूरवीर पांडवों द्वारा निष्कंटक बनाई हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य भोग रहे हो। (42)
  • शत्रुओं का दमन करने वाले पुत्र! यदि तुम अपने मंत्रियों सहित राज्य भोगना चाहते हो तो पांडवों को उनका यथोचित भाग (आधा राज्य) दे दो। (43)
  • ‘भारत! भूमंडल का आधा राज्य मंत्रियों सहित तुम्हारे जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त है। तुम सुहृदों की आज्ञा के अनुसार चलकर सुयश प्राप्त करोगे। (44)
  • ‘तात! श्रीमान, मनस्वी, बुद्धिमान तथा जितेंद्रिय पांडवों के साथ होने वाला कलह तुम्हें महान सुख से वंचित कर देगा। (45)
  • भरतश्रेष्ठ! तुम पांडवों को उनका राज्य भाग देकर सुहृदों के बढ़ते हुए क्रोध को शांत कर दो और अपने राज्य का यथोचित रीति से शासन करते रहो। (46)
  • ‘बेटा! पांडवों को जो तेरह वर्षों के लिए निर्वासित कर दिया गया, यही उनका महान अपकार हुआ है। महामते! तुम्हारे काम और क्रोध से इस अपकार की और भी वृद्धि हुई है। अब तुम संधि के द्वारा इसे शांत कर दो। (47)
  • ‘तुम जो कुंती के पुत्रों का धन हड़प लेना चाहते हो, ऐसा करने की तुम्हारी शक्ति नहीं है। क्रोध को दृढ़तापूर्वक धारण करने वाला सूतपुत्र कर्ण तथा तुम्हारा भाई दु:शासन- ये दोनों भी ऐसा करने में समर्थ नहीं हैं। (48)
  • ‘जिस समय भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण तथा भीमसेन, अर्जुन और धृष्टद्युम्न- ये अत्यंत कुपित होकर परस्पर युद्ध करेंगे, उस समय सारी प्रजा का विनाश अवश्यंभावी है। (49)
  • ‘तात! तुम क्रोध के वशीभूत होकर समस्त कौरवों का वध न कराओ। तुम्हारे लिए इस सम्पूर्ण भूमंडल का विनाश न हो। (50)
  • ‘मूढ़! तुम जो यह समझ रहे हो कि भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि अपनी पूरी शक्ति लगाकर मेरी ओर से युद्ध करेंगे, यह इस समय कदापि संभव नहीं है। (51)
  • ‘क्योंकि इन आत्मज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में इस राज्य का पांडवों अथवा तुम लोगों के पास रहना समान ही है। इनके हृदय में दोनों के लिए एक-सा ही प्रेम और स्थान है तथा राज्य से भी बढ़कर ये धर्म को महत्त्व देते हैं। (52)
  • ‘इस राज्य का इन्होंने जो अन्न खाया है, उसके भय से यद्यपि ये तुम्हारी ओर से लड़कर अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे, तथापि राजा युधिष्ठिर की ओर कभी वक्र दृष्टि से नहीं देख सकेंगे। (53)
  • ‘तात भरतश्रेष्ठ! इस संसार में केवल लोभ करने से किसी को धन की प्राप्ति होती नहीं दिखाई देती, अत: लोभ से कुछ सिद्ध होने वाला नहीं है। तुम पांडवों के साथ संधि कर लो।' (54)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में गांधारी वाक्य विषयक एक सौ उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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