महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 129 श्लोक 19-36

एकोनत्रिंशदधिकशततम (129) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद
  • ‘बेटा दुर्योधन! मेरी यह बात सुनो। जो सगे-संबंधियों सहित तुम्हारे लिए हितकारक और भविष्य में सुख की प्राप्ति कराने वाली है। (19)
  • ‘भरतश्रेष्ठ दुर्योधन! तुम्हारे पिता, पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य और विदुर तुमसे जो कुछ कहते हैं, अपने इन सुहृदों की वह बात मान लो। (20)
  • ‘यदि तुम शांत हो जाओगे तो तुम्हारे द्वारा भीष्म की, पिताजी की, मेरी तथा द्रोण आदि अन्य हितैषी सुहृदों की भी पूजा सम्पन्न हो जाएगी। (21)
  • ‘भरतश्रेष्ठ! महामते! कोई भी अपनी इच्छा मात्र से राज्य की प्राप्ति, रक्षा अथवा उपभोग नहीं कर सकता। (22)
  • ‘जिसने अपनी इंद्रियों को वश में नहीं किया है, वह दीर्घकाल तक राज्य का उपभोग नहीं कर सकता। जिसने अपने मन को जीत लिया है, वह मेधावी पुरुष ही राज्य की रक्षा कर सकता है। (23)
  • ‘काम और क्रोध मनुष्य को धन से दूर खींच ले जाते हैं। उन दोनों शत्रुओं को जीत लेने पर राजा इस पृथ्वी पर विजय पाता है। (24)
  • ‘जनेश्वर! यह महान प्रभुत्व ही राज्य नामक अभीष्ट स्थान है। जिनकी अंतरात्मा दूषित है, वे इसकी रक्षा नहीं कर सकते। 25)
  • ‘महत्पद को प्राप्त करने की इच्छा वाला पुरुष अपनी इंद्रियों को अर्थ और धर्म में नियंत्रित करे। इंद्रियों को जीत लेने पर बुद्धि उसी प्रकार बढ़ती है, जैसे ईंधन डालने से आग प्रज्वलित हो उठती है। (26)
  • ‘जैसे उद्दंड घोड़े काबू में न होने पर मूर्ख सारथी को मार्ग में ही मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन इंद्रियों को काबू में न रखा जाय तो ये मनुष्य का नाश करने के लिए भी पर्याप्त हैं। (27)
  • ‘जो पहले अपने मनको न जीतकर मंत्रियों को जीतने की इच्छा करता है अथवा मंत्रियों को जीते बिना शत्रुओं को जीतना चाहता है, वह विवश होकर राज्य और जीवन दोनों से वंचित हो जाता है। (28)
  • अत: पहले अपने मन को ही शत्रु के स्थान पर रखकर इसे जीतें। तत्पश्चात मंत्रियों और शत्रुओं पर विजय पाने की इच्छा करें। ऐसा करने से उसकी विजय पाने की अभिलाषा कभी व्यर्थ नहीं होती है। (29)
  • जिसने अपनी इंद्रियों को वश में कर रखा है, मंत्रियों पर विजय पा ली है तथा जो अपराधियों को दण्ड प्रदान करता है, खूब सोच-समझकर कार्य करने वाले उस धीर पुरुष की लक्ष्मी अत्यंत सेवा करती है। (30)
  • छोटे छिद्र वाले जाल से ढकी हुई दो मछलियों की भाँति ये काम और क्रोध भी शरीर के भीतर ही छिपे हुए है, जो मनुष्य के ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। (31)
  • इन्हीं दोनों काम और क्रोध के द्वारा देवताओं ने स्वर्ग में जाने वाले पुरुष के लिए उस लोक का दरवाजा बंद कर रखा है। वीतराग पुरुष से डरकर ही देवताओं ने स्वर्ग प्राप्ति के प्रतिबंधक काम और क्रोध की वृद्धि की है। (32)
  • ‘जो राजा काम, क्रोध, लोभ, दंभ और दर्प को अच्छी तरह जीतने की काला जानता है, वह इस पृथ्वी का शासन कर सकता है। (33)
  • ‘अत: अर्थ, धर्म तथा शत्रुओं का पराभव चाहने वाले राजा को सदा अपनी इंद्रियों को काबू में रखने का प्रयत्न करना चाहिए। (34)
  • ‘जो राजा काम अथवा क्रोध से वशीभूत होकर स्वजनों या दूसरों के प्रति मिथ्या बर्ताव [1] करता है, उसके कोई सहायक नहीं होते हैं। (35)
  • ‘तात! पांडव परस्पर संगठित होने के कारण एकीभूत हो गए हैं। वे परम ज्ञानी, शूरवीर तथा शत्रुसंहार में समर्थ हैं। तुम उनके साथ मिलकर सुखपूर्वक इस पृथ्वी का राज्य भोग सकोगे। (36)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कपट एवं अन्याययुक्त आचरण

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