महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 10 श्लोक 20-38

दशम (10) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: दशम अध्याय: श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद

इससे तुम्हें सुख मिलेगा और इन्द्र के सनातन लोकों पर भी तुम्हारा अधिकार रहेगा। ऋषियों की यह बात सुनकर महाबली वृत्रासुर ने उन सब को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा- 'महाभाग देवताओ! महर्षियो तथा गन्धर्वो! आप सब लोग जो कुछ कह रहे हैं, वह सब मैने सुन लिया। निष्पाप देवगण! अब मेरी भी बात आप लोग सुनें। मुझमें और इन्द्र में संधि कैसे होगी? दो तेजस्वी पुरुषों में मैत्री का सम्बन्ध किस प्रकार स्थापित होगा?

ऋषि बोंले- एक बार साधु पुरुषों की संगति की अभिलाषा अवश्य रखनी चाहिये। साधु पुरुषों का संग प्राप्त होने पर उससे परम कल्याण ही होगा। साधु पुरुषों के संग की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। अतः संतों का संग मिलने की अवश्य इच्छा करें। सज्जनों का संग सुदृढ़ एवं चिरस्थायी होता है। धीर संत महात्मा संकट के समय हितकर कर्तव्य का ही उपदेश देते हैं। साधु पुरुषों का संग महान अभीष्ट वस्तुओं का साधक होता है। अतः बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह सज्जनों को नष्ट करने की इच्छा न करें। इन्द्र सत्य पुरुषों के सम्माननीय हैं। महात्मा पुरुषों के आश्रय है, वे सत्यवादी, अनिन्दनीय, धर्मज्ञ तथा सूक्ष्म बुद्धिवाले हैं। ऐसे इन्द्र के साथ तुम्हारी सदा के लिये संधि हो जाय इस प्रकार तुम उनका विश्वास प्राप्त करो। तुम्हें इसके विपरीत कोई विचार नहीं करना चाहिये।

शल्य कहते हैं--राजन! महर्षियों की यह बात सुनकर महातेजस्वी वृत्र ने उनसे कहा भगवन! आप जैसे तपस्वी महात्मा अवश्य ही मेरे लिये सम्मानीय हैं। देवताओ! मैं अभी जो कुछ कह रहा हूँ, वह सब यदि आप लोग स्वीकार कर लें, तो इन श्रेष्ठ महर्षियों ने मुझे जो आदेश दिये हैं, उन सब का मैं अवश्य पालन करूँगा। 'विप्रवरो! मैं देवताओं सहित इन्द्र द्वारा न सूखी वस्तु से; न गीली वस्तु से; न पत्थर से; न लकड़ी से; न शस्त्र से, न अस्त्र से; न दिन में और न रात में ही मारा जाऊँ। इस शर्त पर देवेन्द्र के साथ सदा के लिये मेरी संधि हो, तो मैं उसे पसंद करता हूँ'। भरतश्रेष्ठ! तब ऋषियों ने उससे 'बहुत अच्छा' कहा इस प्रकार संधि हो जाने पर वृत्रासुर को बड़ी प्रसन्नता हुई। इन्द्र भी हर्ष से भरकर सदा उससे मिलने लगे, परंतु वे वृत्र के वध सम्बन्धी उपायों को ही सोचते रहते थे। वृत्रासुर के छिद्र की (उसे मारने के अवसर की) खोज करते हुए देवराज इन्द्र सदा उद्विग्न रहते थे। एक दिन उन्होंने समुद्र के तट पर उस महान असुर को देखा। उस समय अत्यन्त दारुण संध्याकाल मुहुर्त उपस्थित था। भगवान इन्द्र ने परमात्मा श्री विष्णु के वरदान का विचार करके सोचा- 'यह भयंकर संध्या उपस्थित है, इस समय न रात है, न दिन है, अतः अभी इस वृतासुर का अवश्य वध कर देना चाहिये; क्योंकि यह मेरा सर्वस्व हर लेने वाला शत्रु है। यदि इस महाबली, महाकाय और महान असुर वृत्र को धोखा देकर मैं अभी नहीं मार डालता हूँ, तो मेरा भला न होगा,। इस प्रकार सोचते हुए ही इन्द्र भगवान विष्णु का बार-बार स्मरण करने लगे। इसी समय उनकी समुद्र में उठते हुए पर्वताकार फेन पर पड़ी। उसे देखकर इन्द्र ने मन ही मन यह विचार किया कि यह न सूखा है न आर्द्र, न अस्त्र है न शस्त्र, अतः इसी को वृत्रासुर पर छोडूँगा, जिससे वह क्षणभर में नष्ट हो जायेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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