द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णव धर्म पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-63 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! साक्षातविष्णुस्वरूप जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण के मुख से भागवत धर्मों का श्रवण करके इस अद्भुद प्रसंग पर विचार करते हुए ऋषि और पाण्डव लोग बहुत प्रसन्न हुए और सबने भगवान को प्रणाम किया। धर्मनन्दन युधिष्ठिर ने तो बारंबार गोविन्द का पूजन किया। देवता, ब्रह्मर्षि, सिद्ध, गन्धर्व, अप्सराएं, ऋषि, महात्मा, गुह्मक, सर्प, महात्मा बालखिल्य, तत्त्वदर्शी योगी तथा पन्चयाम उपासना करने वाले भगवद् भक्त पुरुष, जो अत्यन्त उत्कण्ठित होकर उपदेश सुनने के लिये पधारे थे, इस परम पवित्र वैष्णव-धर्म का उपदेश सुनकर तत्क्षण निष्पाप एवं पवित्र हो गये। सबमें भगवद्भक्ति उमड़ आयी। फिर उन सबने भगवान के चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और उनके उपदेश की प्रशंसा की। फिर ‘भगवान्! अब हम द्वारका में पुन: आप जगद्गुरु का दर्शन करेंगे।’ यों कहकर सब ऋषि प्रसन्नचित हो देवताओं के साथ अपने-अपने स्थान को चले गये। राजन्! उन सबके चले जाने पर केशिनिषूदन भगवान श्रीकृष्ण ने सात्यकि सहित दारुक को याद किया। सारथि दारुक पास ही बैठा था, उसने निवेदन किया- ‘भगवन! रथ तैयार है, पधारिये।’ यह सुनकर पाण्डवों का मुहं उदास हो गया। उन्होंने हाथ जोड़कर सिर से लगाया और वे आँसू भरे नत्रों से पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की ओर एकटक देखने लगे, किंतु अत्यन्त दुखी होने के कारण उस समय कुछ बोल न सके। देवेश्वर भगवान श्रीकृष्ण भी उनकी दशा देखकर दुखी-से हो गये और उन्होंने कुन्ती, धृतराष्ट्र, गान्धारी, विदुर, द्रौपदी, महर्षि व्यास और अन्यान्य ऋषियों एवं मन्त्रियों से विदा लेकर सुभद्रा तथा पुत्र सहित उत्तरा की पीठ पर हाथ फेरा और आशीर्वाद देकर वे उस राजभवन से बाहर निकल आये और रथ पर सवार हो गये। उस रथ में शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम वाले चार घोड़े जुते हुए थे तथा बुद्धिमान गरुड़ का ध्वज फहरा रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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