महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-56

द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णव धर्म पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-56 का हिन्दी अनुवाद


नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर! इन्‍द्र आदि सम्‍पूर्ण देवता उपर्युक्‍त विधि से मेरा भजन करने के कारण ही आज स्‍वर्गीय सुख का उपभोग कर रहे हैं।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्‍ण के इस प्रकार उपदेश देने पर धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हाथ जोड़कर भक्‍तिपूर्वक उनकी इस प्रकार स्‍तुति करने लगे- ‘हृषीकेश! आप सम्‍पूर्ण लोकों के स्‍वामी और देवताओं के भी ईश्वर हैं। आपको नमस्‍कार है। हजारों नेत्र धारण करने वाले परमेश्‍वर! आपको सहस्‍त्रों मस्‍तक हैं, आपको सदा प्रणाम है। वेदत्रयी आपका स्‍वरूप है, तीनों वेदों के आप अधीश्‍वर हैं और वेदत्रयी के द्वारा आपकी ही स्‍तुति की गई है। आप ही यज्ञस्‍वरूप, यज्ञ में प्रकट होने वाले और यज्ञ के स्‍वामी हैं। आपको बारंबार नमस्‍कार है। आप चार रूप धारण करने वाले, चार भुजाधारी और चतुर्व्‍यूहस्‍वरूप हैं।

आपको बारंबार नमस्‍कार है। आप विश्‍वरूप, लोकेश्‍वरों के अधीश्‍वर तथा सम्‍पूर्ण लोकों के निवास स्‍थान हैं, आपको मेरा पुन:-पुन: प्रणाम है। नरसिंह! आप ही इस जगत की सृष्‍टि और संहार करने वाले हैं आपको बारंबार नमस्‍कार है। भक्‍तों के प्रियतम श्रीकृष्‍ण! स्‍वामिन! आपको बारंबार प्रणाम है। आप सम्‍पूर्ण लोकों के प्रिय हैं। आपको नमस्‍कार है। भक्तवत्‍सल! आपको नमस्‍कार है। आप ब्रह्मा के निवास स्‍थान और उनके स्‍वामी हैं। आपको प्रणाम है। रुद्ररूप! आपको नमस्‍कार है। रौद्र कर्म में रत रहने वाले आपको नमस्‍कार है। पंचयज्ञरूप! आपको नमस्‍कार है। सर्वयज्ञरूप! आपको नमस्‍कार है। प्‍यारे श्रीकृष्‍ण! आपको प्रणाम है। स्‍वामिन! श्रीकृष्‍ण! आपको बारंबार नमस्‍कार है। योगियों के प्रिय! आपको नमस्‍कार है। योगियों के स्‍वामी! आपको बार-बार प्रणाम है। हयग्रीव! आपको नमस्‍कार है। चक्रपाणे! आपको बारंबार नमस्‍कार है। पंचभूतस्‍वरूप! आपको नमस्‍कार है। आप पाँच आयुध धारण करने वाले हैं; आपको नमस्‍कार है।’

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- राजन! धर्मराज युधिष्ठिर जब भक्‍ति गद्गद वाणी से इस प्रकार भगवान की स्‍तुति करने लगे, तब श्रीकृष्‍ण ने प्रसन्‍नतापूर्वक धर्मराज का हाथ पकड़कर उन्‍हें रोका। नरोत्तम! भगवान श्रीकृष्‍ण पुन: वाणी द्वारा निवारण करके भक्‍ति से विनम्र हुए धर्मपुत्र युधिष्ठिर से यो कहने लगे।

श्रीभगवान बोले- राजन! यह क्‍या है? तुम भेद-भाव रखने वाले मनुष्‍य की भाँति मेरी स्‍तुति क्‍यों करने लगे? इसे बंद करके पहले के ही समान प्रश्‍न करो।

युधिष्ठिर ने पूछा- मानद! कृष्‍णपक्ष में द्वादशी को आपकी पूजा किस प्रकार करनी चाहिये? इस धर्मयुक्‍त विषय का वर्णन कीजिये।

श्रीभगवान ने कहा- राजन! में पूर्ववत तुम्‍हारे सभी प्रश्‍नों का उत्तर देता हूँ, सुनो। कृष्‍णपक्ष की द्वादशी को मेरी पूजा करने का बहुत बड़ा फल है। एकादशी को उपवास करके द्वादशी को मेरा पूजन करना चाहिये। उस दिन भक्‍तियुक्‍त मनुष्‍य को यथाशक्‍ति ब्राह्मणों का भी पूजन करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्‍य दक्षिणामूर्ति शिव को अथवा मुझे प्राप्‍त होता है; इसमें कोई संशय नहीं है। अथवा वह ग्रह-नक्षत्रों से पूजित हुआ चन्द्रमा के लोक को प्राप्‍त हो जाता है।

(दक्षिणात्य प्रति में अध्याय समाप्त)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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