महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-41

द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णव धर्म पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-41 का हिन्दी अनुवाद


[धर्म और शौच के लक्षण, संन्यासी और अतिथि के सत्कार के उपदेश, शिष्टाचार, दान पात्र ब्राह्मण तथा अन्न-दान की प्रशंसा]]

युधिष्ठिर ने पूछा- जनार्दन! मनीषी पुरुष धर्म को अनेकों प्रकार का और बहुत-से द्वार वाला बतलाते हैं। वास्तव में उसका लक्षण क्या है? यह मुझे बताने की कृपा करें।

श्रीभगवान ने कहा- राजन! तुम धर्म और शौच की विधि का क्रम सुनो। राजेन्‍द्र! अहिंसा, शौच, क्रोध का अभाव, कू्रता का अभाव, दम, शम और सरलता- ये धर्म के निश्‍चित लक्षण हैं। ब्रह्मचर्य, तपस्या, क्षमा, मधु-मांस का त्‍याग, धर्म-मर्यादा के भीतर रहना और मन को वश में रखना- ये सब शौच (पवित्रता) के लक्षण हैं। मनुष्‍य को चाहिये कि वह बचपन में विद्याध्‍ययन करे, युवावस्‍था होने पर स्‍त्री के साथ विवाह करे और बुढ़ापे में मुनिवृत्‍ति का आश्रय ले एवं धर्म का आचरण सदा ही सब अवस्‍थाओं में करता रहे।

ब्राह्मणों का अपमान न करे, गुरुजनों की निन्‍दा न करे और सन्‍यासी महात्‍माओं के अनुकूल बर्ताव करे- यह सनातन धर्म है। ब्राह्मणों का गुरु सन्‍यासी है, चारों वर्णों का गुरु ब्राह्मण है, समस्‍त स्‍त्रियों के लिये गुरु उनका पति है और सबका गुरु राजा है। सन्‍यासी एक दण्‍ड धारण करने वाला हो या तीन दण्‍ड, बड़ी-बड़ी जटाएँ रखता हो या माथा मुंडाये रहता हो अथवा गेरुआ वस्‍त्र पहनने वाला हो, नि:संदेह उसका सत्‍कार करना चाहिये। इसलिये जो परलोक में अपना कल्‍याण चाहते हों, उन पुरुषों को उचित है कि वह मुझमें समस्‍त कर्मों का अपर्ण करने वाले मेरे शरणागत भक्‍तों का यत्नपूर्वक सत्‍कार करें। ब्राह्मणों पर हाथ न छोड़े और गाय को कभी न मारे।

जो ब्राह्मण इन दोनों पर प्रहार करता है, उसे भ्रूण हत्‍या के समान पाप लगता है। अग्‍नि को मुँह से न फूंके, पैरों को आग पर न तपावे और आग को पैरों से न कुचले तथा पीठ की ओर से अग्‍नि का सेवन न करे। जो मनुष्‍य कुत्‍ते या चाण्‍डाल से छू गया हो, उसे अपना अंग अग्‍नि में नहीं तपाना चाहिये; क्‍योंकि अग्‍नि सर्वदेवतारूप है। अत: सदा शुद्ध होकर उसका स्‍पर्श करना चाहिये। मल या मूत्र की हाजत होने पर बुद्धिमान पुरुष को अग्‍नि का स्‍पर्श नहीं करना चाहिये, क्‍योंकि जब तक यह मल-मूत्र का वेग धारण करता है, तब तक अशुद्ध रहता है।

युधिष्ठिर ने पूछा- जनार्दन! जिनको दान देने से महान फल की प्राप्‍ति होती है, वे श्रेष्‍ठ ब्राह्मण कैसे होते हैं तथा किस प्रकार के ब्राह्मणों को दान देना चाहिये? यह मुझे बताइये।

श्रीभगवान ने कहा- राजन! जो क्रोध न करने वाले, सत्‍यपरायण, सदा धर्म में लगे रहने वाले ओर जितेन्‍द्रिय हों, वे ही श्रेष्‍ठ ब्राह्मण हैं तथा उन्‍हीं को दान देने से महान फल की प्राप्‍ति होती है। जो अभिमान शून्‍य, सब कुछ सहने वाले, शास्‍त्रीय अर्थ के ज्ञाता, इन्‍द्रियजयी, सम्‍पूर्ण प्राणियों के हितकारी, सबके साथ मैत्री का भाव रखने वाले हैं, उनको दिया हुआ दान महान फलदायक है। जो निर्लोभ, पवित्र, विद्वान, संकोची, सत्‍यवादी और स्‍वधर्मपरायण हों, उनको दिया हुआ दान महान फल की प्राप्‍ति कराने वाला होता है। जो प्रतिदिन अंगों सहित चारों वेदों का स्‍वाध्‍याय करता हो और उसके उदर में शूद्र का अन्‍न न पड़ा हो, उसको ऋषियों ने दान उत्तम पात्र माना है।

युधिष्‍ठिर! यदि शुद्ध बुद्धि, शास्‍त्रीय ज्ञान, सदाचार और उत्तम शील से युक्‍त एक ब्राह्मण भी दान ग्रहण कर ले वह दाता के समस्‍त कुल का उद्धार कर देता है। ऐसे ब्राह्मण को गाय, घोड़ा, अन्‍न और धन देना चाहिये। सत्‍पुरुषों द्वारा सम्‍मानित किसी गुणवान ब्राह्मण का नाम सुनकर उसे दूर से भी बुलाना और प्रयत्‍नपूर्वक उसका सत्‍कार तथा पूजन करना चाहिये। युधिष्‍ठिर ने कहा- देवेश्‍वर! धर्म और अधर्म की इस विधि का भीष्‍म जी ने विस्‍तार के साथ वर्णन किया था। आप उनके वचनों से साभूत धर्म छांटकर बतलाइये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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