महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-32

द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णव धर्म पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-32 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर ने पूछा- अच्युत! भगवन! आपके भक्त कैसे होते हैं और उनके नियम कौन-कौन से हैं? यह बताने की कृपा कीजिये; क्‍योंकि देवेश्‍वर! मैं भी आपके चरणों में भक्‍ति रखता हूँ। श्रीभगवान ने कहा- राजन! जो दूसरे किसी देवता के भक्‍त न होकर केवल मरी ही शरण ले चुके हों तथा मेरे भक्‍तजनों के साथ प्रेम रखते हों, वे ही मेरे भक्‍त कहे गये हैं। पाण्‍डवश्रेष्ठ! स्‍वर्ग और यश देने वाले होने के साथ ही जो मुझे विशेष प्रिय हों, ऐसे व्रतों का ही मेरे भक्त पालन करते हैं। भक्त पुरुष को जल में तैरते समय एक वस्‍त्र के सिवा दूसरा नहीं धारण करना चाहिये। स्‍वस्‍थ रहते हुए दिन में कभी नहीं सोना चाहिये। मधु और मांस को त्‍याग देना चाहिये। मार्ग में ब्राह्मण, गौ, पीपल और अग्‍नि के मिलने पर उनको दाहिने करके जाना चाहिये। पानी बरसते समय दौड़ना नहीं चाहिये। पहले मिलने वाली भिक्षा का त्‍याग नहीं करना चाहिये।

खाली नमक नहीं खाना चाहिये तथा सौभांजन और करंजन का भक्षण नहीं करना चाहिये। गौ को प्रतिदिन ग्रास अर्पण करे और अन्‍न में खटाई मिलाकर न खाय। दूसरे के घर से उठाकर आयी हुई रसोई, बासी अन्‍न तथा भगवान को भोग न लगाये हुए पदार्थ का भी प्रयत्‍नपूर्वक त्‍याग करे। बहेड़े और करंज की छाया से दूर रहे, कष्‍ट में पड़ने पर भी ब्राह्मणों और देवताओं की निन्‍दा न कर। सूर्योदय के बाद नित्‍य क्रियाशील रहने वाले बुद्धिमान और चारों वेदों के विद्वान ब्राह्मण के शरीर में भी छ: वृषल बताये जाते हैं। पाण्‍डवश्रेष्‍ठ! क्षत्रियों के शरीर में सात वृषल जानने चाहिये, वैश्‍यों के देह में आठ वृषल बताये गये हैं और शूद्रों में इक्‍कीस वृषलों का निवास माना गया है। काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और महामोह- ये छ: वृषल ब्राह्मणों के शरीर में स्‍थित बताये गये हैं। गर्व, स्‍तम्‍भ (जडता), अहंकार, ईर्ष्‍या, द्रोह, पारुष्‍य (कठोर बोलना) और क्रूरता- ये सात क्षत्रिय-शरीर में रहने वाले वृषण हैं। तीक्ष्‍णता, कपट, माया, शठता, दम्‍भ, सरलता का अभाव, चुगली और असत्‍य-भाषण-ये आठ वैश्‍य-शरीर के वृषल हैं।

तृष्‍णा, खाने की इच्‍छा, निद्रा, आलस्‍य, निर्दयता, क्रूरता, मानसिक चिन्‍ता, विषाद, प्रमाद, अधीरता, भय, घबराहट, जडता, पाप, क्रोध, आशा, अश्रद्धा, अनवस्‍था, निरंकुशता, अपवित्रता और मलिनता- ये इक्‍कीस बृषल शूद्र के शरीर में रहने वाले बताये गये हैं। ये सभी बृषल जिसके भीतर न दिखायी दें, वही वास्‍तव में ब्राह्मण कहलाता है। अत: यदि ब्राह्मण मेरा प्रिय होना चाहे तो सात्‍विक, पवित्र और क्रोधहीन होकर मेरी पूजा करता रहे। जिसकी जिह्वा चंचल नहीं है, जो धैर्य धारण किये रहता है और चार हाथ आगे तक दृष्‍टि रखते हुए चलता है, जिसने अपने चंचल मन और वाणी को वश में करके भय से छुटकारा पा लिया है, वह मेरा भक्‍त कहलाता है। ऐसे अध्‍यात्‍म ज्ञान से युक्‍त जितेन्‍द्रीय ब्राह्मण जिन के यहाँ श्राद्ध में तृप्‍तिपूर्वक भोजन करते हैं, उनके पितर उस भोजन से पूर्ण तृप्‍त होते हैं। धर्म की जय होती है, अधर्म की नहीं; सत्‍य की विजय होती है, असत्‍य की नहीं तथा क्षमा की जीत होती है, क्रोध की नहीं। इसलिये ब्राह्मण को क्षमाशील होना चाहिये।

(दक्षिणात्य प्रति में अध्याय समाप्त)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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