महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-29

द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-29 का हिन्दी अनुवाद


यदि नदी हो तो जिस ओर से उसकी धारा आती हो, उसी ओर मुँह करके तथा दूसरे जलाशयों में सूर्य की ओर मुँह करके स्नान करना चाहिये। ॐकार का उच्चारण करते हुए धीरे से गोता लगावे, जल में हलचल पैदा न करे। बाद गोबर को हाथ में ले जल से गीला करके उसके तीन भाग करे और उसे भी पूर्ववत अपने शरीर के ऊर्ध्‍व भाग, मध्‍य भाग तथा अधो भाग में लगावे। उस समय प्रणव और व्‍याहृतियों सहित गायत्री मंत्र की पुनरावृत्‍ति करता रहे। फिर मुझमें चित्त लगाकर आचमन करने के पश्‍चात ‘आपो हिष्‍ठा मयो’[1] इत्‍यादि तीन ऋचाओं से और गोसूक्‍त, अश्‍वसूक्‍त, वैष्‍णवसूक्‍त, वारुणसूक्‍त, सावित्रसूक्‍त, ऐन्द्रसूक्त, वामदैव्‍यसूक्‍त तथा मुझसे सम्‍बन्‍ध रखने वाले अन्‍य साम मंत्रों के द्वारा शुद्ध जल से अपने ऊपर मार्जन करे। फिर जल के भीतर स्‍थित होकर अघमर्षणसूक्त का जप करे। अथवा प्रणव एवं व्‍याहृतियों सहित गायत्री मंत्र जपे या जब तक सांस रुकी रहे तब तक मेरा स्‍मरण करते हुए केवल प्रणव का ही जप करता रहे। इस प्रकार स्‍नान करके जलाशय के किनारे आकर धोये हुए शुद्ध वस्त्र– धोती और चादर धारण करे। चादर को कांख में रस्‍सी की भाँति लपेटकर बांधे नहीं।

जो वस्त्र कांख में रस्‍सी की भाँति लपेट करके वैदिक कर्मों का अनुष्‍ठान करता है, उसके कर्म को राक्षस, दानव और दैत्‍य बड़े हर्ष में भरकर नष्‍ट कर डालते हैं; इसलिये सब प्रकार के प्रयत्‍न से कांख को वस्‍त्र से बांधना नहीं चाहिये। ब्राह्मण को चाहिये कि वस्‍त्र-धारण के पश्‍चात धीरे-धीरे हाथ और पैरों को मिट्टी से मलकर धो डाले, फिर गायत्री-मंत्र पढ़कर आचमन करे। तथा पूर्व या उत्तर की ओर मुंह करके एकाग्रिचत्‍त से वेदों का स्‍वाध्‍याय करे। जल में खड़ा हुआ द्विज जल में ही आचमन करके शुद्ध हो जाता है और स्‍थल में स्‍थित पुरुष स्‍थल में ही आचमन के द्वारा शुद्ध होता है, अत: जल और स्‍थल में कहीं भी स्‍थित होने वाले द्विज को आत्‍म शुद्धि के लिये आचमन करना चाहिये। इसके बाद संध्‍योपासन करने के लिये हाथों में कुश लेकर पूर्वाभिमुख हो कुशासन पर बैठे और मुझमें मन लगाकर एकाग्रभाव से प्राणायाम करे।

फिर एकाग्रचित्त होकर एक हजार या एक सौ गायत्री-मंत्र का जप करे। मन्देह नामक राक्षसों का नाश करने के उद्देश्‍य से गायत्री-मंत्र द्वारा अभिमन्‍त्रित जल लेकर सूर्य को अर्घ्‍य प्रदान करे। उसके बाद आचमन करके ‘उद्वर्गोसि’ इस मंत्र से प्रायश्‍चित के लिये जल छोड़े। फिर द्विज को चाहिये कि अंजलि में सुगन्‍धित पुष्‍प और जल लेकर सूर्य को अर्घ्‍य दे और आकाश मुद्रा का प्रदर्शन करे। तदनन्‍तर सूर्य के एकाक्षर-मंत्र का बारह बार जप करे और उनके षडक्षर आदि मंत्रों की छ: बार पुरनावृत्ति करे। आकाशमुद्रा को दाहिनी ओर से घुमाकर अपने मुख में विलीन करे। इसके बाद दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर एकाग्रचित्त से सूर्य की ओर देखते हुए उनके मण्‍डल में स्‍थित मुझ चार भुजाधारी तेजोमूर्ति नारायण का एकाग्रचित्त से ध्‍यान करे। उस समय ‘उदुत्‍यम्’, ‘चित्रं देवानाम’, ‘तच्‍चक्षु:’ इन मंत्रों का यथाशक्‍ति गायत्री-मंत्र का तथा मुझसे सम्‍बन्‍ध रखने वाले सूक्‍तों का जप करके मेरे साममन्‍त्रों और पुरुषसूक्‍त का भी पाठ करे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुव:। ॐ ता न ऊर्जे दधातन। ॐ यो व: शिवतमो रस। ॐ तस्य भाजयतेह न:। ॐ उशतीरिव मातर:। ॐ तस्मा अरं गमाम व:। ॐ यस्य क्षयाय जिंवथ। ॐ आपो जनयथा च न:। (यजु.11 मं 50-52)

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